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________________ तीन लघुशाखा, वृहत्शाखा और वर्षावट शाखा से विभक्त है। श्री परमानंद जैन शास्त्री इस जाति के महत्त्वपूर्ण कार्य बताते हुए लिखते हैं कि हुमड़वंश द्वारा निर्मित मंदिरों में सबसे प्राचीन मंदिर झालरापाटन का प्रसिद्ध शांतिनाथ का मंदिर है जिसे हुमड़ वंशीय शाह पीपा ने बनवाया था और जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम सं.1103 में भावदेवसूरि के द्वारा सम्पन्न हुई थी। यह मंदिर बहत विशाल है और नौ सौ वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी दर्शकों के हृदय में धर्मसेवन की भावना को उल्लासित कर रहा है। इस मंदिर में जो मूल नायक की मूर्ति है, वह बड़ी ही चित्ताकर्षक है। कहा जाता है कि साहू पीपा ने इस मंदिर के निर्माण करने में विपुल द्रव्य खर्च किया था और उसकी प्रतिष्ठा में तो उससे भी अधिक व्यय हुआ था। शाह पीपा जितने वैभवशाली थे उतने ही वे धर्मनिष्ठ और उदारमना भी थे। इनकी समाधि उसी मंदिर के पास अहाते में बनी इस मंदिर में एक पुराना शास्त्र भण्डार है जिसमें एक हजार हस्तलिखित ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। चूंकि यह मंदिर नौ सौ वर्ष पुराना है, हुम्बड़ जाति का अस्तित्व भी नौ सौ र्वा से पूर्व का होना चाहिए। कितने वर्ष पूर्व का, यह अभी विचारणीय है। पर सम्भवतः उसकी सीमा 100 वर्ष तो और है ही। ऊपर इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्य मानतुंग का नाम आया है। ये आचार्य वी, आठवीं सदी में हुए हैं। इस प्रकार हुम्बड़ जाति की उत्पत्ति भी सातवीं आठवीं सदी में कभी होना चाहिये। यह जाति काष्ठा संघ, मूल संघ दोनों की अनुगामी रही है। सरस्वतीगच्छ भी दोनों में पाये जाते हैं। __(9) बघेरवाल जाति : दिगम्बर जैन समाज की जातियों में बघेरवाल जाति का भी विशिष्ट स्थान है। इस जाति के लोग राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में निवास करते हैं। इस जाति का नाम राजस्थान में केकड़ा के निकट स्थित बघेरा नामक ग्राम से लिया गया है। इस ग्राम में इस समय खण्डेलवाल तथा अगरवालों के घर हैं जिनमें बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी की कई मूर्तियां हैं। 40 इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भाट की पौथी के आधार पर डॉ.विद्याधर जोहरापुरकर ने इस प्रकार उल्लेख किया है- "प्रथम दुढाड देश में राजा विक्रम के समय में कुन्दकुन्दाचार्यजी के अम्नाय में जम्बुस्वामी हुए। ये बघेरा गांव में आये। उस गांव का राजा बलिभद्र उसका बेटा बरणकुंवर और इक्यावन गांव के इक्यावन ठाकुर को उपदेश देकर बघेरवाल जाति की 52 गोत्र स्थापित करी। संवत् 111 माह बदी 11 रविवार को। कुछ कारणवश कुछ घर कैलाशगढ़ देश तरफ आया सो उनका धरम छूट गया। वहां विहार करते-करते लोहाचार्यजी काष्ठांसघ वाले 5211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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