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ऐसी मान्यता है कि अग्रवालों को वि.सं.27 और 77 के मध्य श्री लोहाचार्यजी ने जैनधर्म में दीक्षित किया। ये मूलतः क्षत्रिय थे किन्तु व्यापारिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप वैश्य माने जाने लगे ये पर्याप्त धनाढ्य होते हैं। अकबर के प्रमुख मंत्रियों में टोडरमल जिसने कि भूमि का बन्दोबस्त किया था तथा मधुशाह अग्रवाल जाति के ही थे , यद्यपि अनेक विद्वान उसे खत्री मानते हैं। अग्रवाल . जाति का इतिहास प्राचीन गौरव से परिपूर्ण है। यह जाति पर्याप्त समृद्ध तथा भूमिपति रही है। मालवा में भी जैन अग्रवाल पर्याप्त मात्रा में निवास करते हैं।
(7) पल्लीवाल : पल्लीवाल दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में ही पाये जाते हैं। ऐसा विदित होता है कि इस जाति का नाम राजस्थान के पाली नगर से पड़ा जिसका नाम प्राचीन काल में पल्लिका अथवा पल्ली था। ऐसा कहा जाता है कि जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि, जिन्होंने ओसिया की जनता को जैनधर्म में दीक्षित कर ओसवाल वंश की स्थापना की थी, उन्हीं आचार्य ने आठवीं शताब्दी में पल्लिका की जनता को भी जैनधर्म में परिवर्तित किया। यह भी विदित होता है कि इस जाति के लोगों ने पाली से समय-समय पर निकलने वाले संघों का नेतृत्व भी किया। इसके अतिरिक्त और कोई विशेष जानकारी इस जाति के विषय में नहीं मिलती है।
(8) हुम्मड़ या हुम्बड़ : हुम्बड़ जाति दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में पायी जाती है। मूल जाति का मुख्य निवास मालवा, राजपूताना, गुजरात तथा दक्षिण भारत के कुछ जिलों में है। इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि पाटण के भूपतिसिंह और भवानीसिंह के झगड़े को जैनाचार्य मानतुंग ने सुलझाया था। भूपतिसिंह जैनाचार्य से प्रसन्न हो गया था और सिंहासन का दावा छोड़कर जैनाचार्य का भक्त बन गया था। एक बार भूपतिसिंह ने अपने गुरु को 'हूं बड़हूं कहा और तभी से उसकी जाति को गुरु के द्वारा हुम्बड़ नाम दिया गया। हुम्बड़ जाति के 18 गोत्र कहे गये हैं। डॉ.के.सी.जैन ने इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं होना बताया है।38
इसके दूसरे विवरण के अनुसार हुमड़ नामक इस जाति ने अपने धार्मिक गुरु जिसने इस जाति की स्थापना की उससे लिया। ये बागड़िया भी कहलाते हैं। यह नाम बागई प्रदेश पर पड़ा। इसमें इंगरपुर, प्रतापगढ़ और सगवाड़ का क्षेत्र शामिल है जहां इस जाति के लोग अभी भी बहुलता से निवास करते हैं।
अन्य जातियों की तरह इस जाति में भी बीसा और दसा भेद है जिसके विषय में विस्तार से लिखना आवश्यक नहीं। अब हुम्बड़ जाति के दसा व बीसा भेदों में बहुतं न्यून ही अन्तर रह गया है। डॉ.के.सी.जैन के अनुसार यह जाति
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