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________________ इस घटना के समय के संबंध में तीन मत प्रचलित हैं, जो निम्नानुसार (1) नाभिनन्दनोधर प्रबन्ध और उपकेश गच्छचरित के अनुसार रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथ की परम्परा में सातवें पट्टधर थे जिन्होंने वीर निर्वाण सं.70 (457 ई. पूर्व) में ओस वंश की स्थापना की। (2) भाटों के मतानुसार ओसवालों की उत्पत्ति रत्नप्रभसूरि के उपदेश से उपकेश नगर (मारवाड़) में वि.सं.222 (ई.सन् 165) में हुई। (3) वस्तुस्थिति यह है कि ये दोनों ही मत सत्य एवं उचित प्रतीत नहीं होते हैं। क्योंकि आठवीं शताब्दी के पूर्व ओसवालों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। सुख सम्पतराय भण्डारी ने ओसवाल जाति की उत्पत्ति का समय विक्रम संवत 500 तथा विक्रम संवत 900 के मध्य औसिया नगरी में माना।' पूर्णचन्द्र नाहर ने इस जाति की उत्पत्ति का समय 500 वि.सं. के पश्चात् और वि.सं.1000 के पूर्व माना और साधारणतः यही तिथि औसवालों की उत्पत्ति की मानी जाती राहुल सांकृत्यायन ओसवालों का उद्भव योधेयों से मानते हैं। उनके विचार से यौधेयो ही कालांतर में ओहतगी, रस्तोगी, ओसवाल आदि कहलाये। ओसवालों के गोत्र : ओसवाल जाति की उत्पत्ति के उपरांत इसमें 18 गोत्र बने किन्तु गोत्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती रही। ऐसा विश्वास है कि ओसवालों के 1444 गोत्र हैं। किन्तु ये मुख्य गोत्र नहीं हैं। ये संभवतः उनके कुनबों या कुलों के परिचायक हैं।.यति श्रीपाल 609 गोत्र बताते हैं। अठारहवीं सदी का कवि रूपचन्द अपने 'ओसवाल रास' में 440 गोत्र बताता है। मुनि ज्ञान सुन्दर ने अठारह मूल गोत्र तथा 498 शाखयें बताई हैं।' उपलब्ध गोत्रों की सूची देखने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इनके पीछे कुछ सिद्धान्त हैं। कुछ गोत्रों के नाम पशु-पक्षियों से लिये गये हैं। यथा- सियाल, काग, गरूड़, हिरण, बकरा आदि। कुछ गोत्रों के नाम निवास स्थन के आधार पर रखे गये हैं। जैसेरामपुरिया, चित्तौड़ा, भोपाल, पाटने आदि। कुछ नाम उनके व्यवसाय पर आधारित हैं। जैसे- भण्डारी, कोठारी, खजांची, कानूनगो, दफ्तरी आदि और कुछ गोत्र धंधे से सम्बन्धित भी हैं। जैसे- घिया, तेलिया, केसरिया, गंधी, सर्राफ आदि। - अन्य जातियों के समान ओसवालों के भी दो भेद हैं। (1) बीसा ओसवाल और (2) दसा ओसवाल। इनके विभाजन और उत्पत्ति का विवरण इस प्रकार दिया जाता है। एक विधवा, विधवा नियमों के विरुद्ध एक जैन साधु के पास रहती है थी और उसमें उसे दो पुत्र हुए। दोनों पुत्र बड़े होने पर सम्पन्न हुए और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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