SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यति या श्रीपूज्य और दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारक जो मठवासी के रूप में जाने जाते हैं। ये दोनों ही सम्प्रदायवाले सम्मिलित रूप से चैत्यवासी कहलाते हैं। 53 दिगम्बर सम्प्रदाय के साहित्य में चैत्यवासियों की उत्पत्ति विषयक कोई जानकारी नहीं मिलती। भट्टारकगण धार्मिक और आध्यात्मिक प्रधान होते हैं तथा इनके अधीन अनेक आचार्य तथा पंडित होते हैं। ये आरामपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं तथा धन एवं अन्य मूल्यवान वस्तुएं श्रद्धालु भक्तों से भेंट में प्राप्त करते हैं। इनको प्रशासकीय अधिकार भी होते हैं जिसके अन्तर्गत ये अलग-अलग स्थानों पर आचार्यों तथा पंडितों की नियुक्ति करते हैं जो कि धार्मिक विषयों की देखभाल करते हैं। (2) लोंका : सन् 1508 में लोकाशाह अहमदाबाद में जैनागमों की प्रतिलिपि करने का कार्य करते थे। एक बार प्रतिलिपि करते समय ग्रन्थ के मध्य के 5-7 पृष्ठों की नकल छोड़ दी, जिनको लेकर जैन यति, जिन्होंने प्रतिलिपि का काम सौंपा था, 'विवाद हो गया। फलतः आपने एक नवीन मत का प्रादुर्भाव व प्रचार किया। 54 आपने "मूर्ति पूजा में हिंसा है और हिंसा में धर्म नहीं हो सकता" इत्यादि अपने विचारों का प्रचार करना प्रारम्भ किया। उनके विचारों से पारंख लखमसी आदि कई व्यक्ति सहमत हुए और वे आपके सहायक शिष्य बन गये। प्रत्येक स्थान पर प्रश्न करते- "धर्म दया में है या हिंसा में ? तो यही सहज उत्तर मिलता कि धर्म तो दया में ही है, हिंसा में नहीं। इस पर वे कहते कि तो फिर मूर्तिपूजा में जल, फल आदि के जीवों की हिंसा प्रत्यक्ष है अतः इसमें धर्म कैसे हो सकता है? यह उक्ति साधारण व्यक्तियों पर तत्काल असर कर जाती और स्याद्वाद युक्त जिनाज्ञा की गंभीरता से अनभिज्ञ भद्रप्रकृति के लोग भ्रम में पड़ जाते। अतः इसे लौंकाशाह के मत प्रचार का मूलमंत्र कह दें तो अनुचित नहीं होगा । 55 स्वमान्यता के पोषण में उन्होंने यह भी कहना प्राम्भ किया कि जैनागमों में मूर्तिपूजा और जिनमंदिर के पाठ का उल्लेख नहीं है । इस कथन के विरोध में सनातन श्वेताम्बर मुनियों ने जब आगमों के प्रमाणों को उपस्थित कर प्रतिवाद किया तब लोंकाशाह के मत प्रचारकों ने उपलब्ध श्वेताम्बर मूल आगमों को ही मान्य रखा और मूल में भी 45 आगमों को ही मान्य किया। इतना ही नहीं स्वमान्यता के पोषण तथा रक्षण के लिये स्वमान्य 45 आगमों में भी जहां कहीं 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy