SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 49 (1) चैत्यवासी तथा अन्य सम्प्रदाय जैन संघ में जो भेदोपभेद, सम्प्रदाय व गण गच्छादि रूप से, समय-समय पर उत्पन्न हुए उनसे जैन मान्यताओं व मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्तन हुए हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। केवल जो दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद विक्रम की दूसरी शती के लगभग उत्पन्न हुआ, उसका मुनि आचार पर क्रमशः गंभीर प्रभाव पड़ा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में न केवल मुनियों द्वारा वस्त्र ग्रहण की मात्रा बढ़ी, किन्तु धीरे-धीरे तीर्थकरों की मूर्तियों में भी कोपीन का चिह्न प्रदर्शित किया जाने लगा तथा मूर्तियों की आंख, अंगी, मुकुट आदि द्वारा अलंकृत किया जाना भी प्रारम्भ हो गया। इस कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर व मूर्तियां जो पहले एक ही रहा करते थे, वे अब पृथक्पृथक् होने लगे। ये प्रवृत्तियां सातवीं आठवीं शती से पूर्व नहीं पाई जाती । एक ओर इस प्रकार से मुनिसंघ में भेद दोनों सम्प्रदायों में उत्पन्न हुआ। जैन मुनि आदि वर्षाऋतु के चातुर्मास को छोड़ अन्य काल में एक स्थान पर परिमित दिनों से अधिक नहीं ठहरते थे और वे सदा विहार किया करते थे। वे नगर में आहार एवं धर्मोपदेश के निमित्त ही आते थे, और शेष काल वन, उपवन, में ही रहते थे। किन्तु धीरे-धीरे पांचवीं छठी शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे। इससे श्वेताम्बर समाज में वनवासी और चैत्यवासी मुनि सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायः उसी काल में कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे। यह प्रवृत्ति आदितः सिद्धान्त के पठन-पाठन व साहित्यसृजन की सुविधा के लिये प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है, किन्तु धीरे- धीरे वह एक साधु वर्ग की स्थायी जीवन प्रणाली बन गई, जिसके कारण नाना मंदिरों में भट्टारकों की गद्दियां व मठ स्थापित हो गये । इस प्रकार के भट्टारकों के आचार में कुछ शैथिल्य तथा परिग्रह अनिवार्यतः आ गया । किन्तु दूसरी ओर उससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन भट्टारकं गद्दियों और मठों में विशाल शास्त्र भण्डार स्थापित हो गये और वे विद्याभ्यास के सुदृढ़ केन्द्र बन गये। दसवीं शताब्दी से आगे जो साहित्य-सृजन हुआ, वह प्रायः इसी प्रकार के विद्या-केन्द्रों में हुआ पाया जाता है। इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गद्दियां धीरे-धीरे प्रायः सभी नगरों मैं स्थापित हो गई और मंदिरों में अच्छा शास्त्र भण्डार भी रहने लगा। यहीं प्राचीन शास्त्रों की लिपियां प्रतिलिपियां होकर उनका नाना केन्द्रों में आदान-प्रदान होने लगा। 51 आचार्य धर्मसागर की पट्टावली के अनुसार चैत्यवासी सम्प्रदाय ई.सन् 355 में प्रारम्भ हुआ जबकि मुनि कल्याणविजय के अनुसार इस सम्प्रदाय का उदय ई.सन्ं 355 से पहले हुआ और इस समय तब यह सम्प्रदाय जम चुका था। Jain Education International For Personal & Private Use Only 35 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy