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________________ में भी इस संघ का पर्याप्त रूप से उल्लेख मिलता है। माण्डवगढ़ के पास जेरहट शाखा में जो भट्टारको की पट्टावली मिलती है, वह मूल संघ से ही सम्बन्धित है। पट्टावली पर्याप्त बाद की अर्थात् 15वीं 16वीं शताब्दी की है। 38 (2) द्राविड़ संघ : इस संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने मथुरा में विक्रम संवत् 526 में की। 7 किन्तु सालेतोर के अनुसार द्राविड़ संघ की स्थापना वज्रनंदी के द्वारा नवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में अथवा दसवी शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में मथुरा में की गई। किन्तु यह मत उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि दर्शनसार के रचयिता देवसेन ने जब द्राविड़ संघ का उल्लेख किया है तो यह मानना ही पड़ेगा कि द्राविड़ संघ देवसेन के पूर्व का है। देवसेन ने अपना दर्शनसार वि.सं.990 अर्थात् ई. सन् 933 में लिखा यदि द्राविड़ संघ को नवी शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश अथवा 10वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश का माना जाय तो यह किस प्रकार सम्भव है कि वह इतनी शीघ्र दक्षिण भारत से उत्तर भारत तक फैल जावे और लोकप्रिय हो जावे? अतः यह स्वीकार करना होगा कि द्राविड़ संघ की उत्पत्ति छठी शताब्दी में ही हुई। दूसरे वज्रनंदी राजा दुर्विनीत के शासनकाल में रहता था। राजा दुर्विनीत ने ई.सन् 478 से 513 ई. सन् तक राज किया। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि वज्रनंदी का समय 5वीं 6ठी शताब्दी है और छठी शताब्दी ही द्राविड़ संघ का उत्पत्ति काल है। इस संघ का जैसा कि नाम है वह उसी प्रदेश का प्रतीक है, जहां इसका जन्म हुआ। 41 (3) काष्ठा संघ : देवसेन के दर्शनसार के अनुसार काष्ठासंघ की स्थापना कुमारसेन के द्वारा नन्दीतलग्राम में विक्रम संवत् 753 में की गई । 11 एक धारण यह भी है कि लोहाचार्य ने काष्ठ प्रतिमाओं की पूजा प्रारम्भ की जिससे इस संघ की स्थापना हुई। 12 कुछ समयोपरांत यह जैन भाण के नाम से पुकारा जाने लगा क्योंकि इस संघ से सम्बन्धित साधुगण मठों में रहने लगे थे तथा भूमि भेंट में स्वीकार करते थे । 43 श्री एस. देव" ने काष्ठा संघ के आम्नाय, अन्वय, गच्छ और गणों की जानकारी इस प्रकार दी है। आम्नाय (1) जिनकीर्ति (2) लोहाचार्य (3) रामसेन अन्वय- (1) अग्रोतक (2) खण्डेलवाल (3) लोहाचार्य (4) माथुर (5) रामसेन गच्छ - (1) बागड (2) लाड़बागड़ ( 3 ) मण्डिता (4) माथुर (5) पुष्कर (6) तपा - गणं- (1) लाड़ बागड़ (2) पुष्कर Jain Education International For Personal & Private Use Only 33 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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