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हैं कि नहीं? इस पर इस गच्छ के प्रमुख को बुलाया गया और कुमारपाल ने इसी प्रकार की पूछताछ की। किन्तु गच्छ प्रमुख सन्तोषप्रद उत्तर नहीं दे सका तब गच्छ प्रमुख को वनवास जाने को कहा गया। कुमारपाल की मृत्यु के उपरांत इस गच्छ के आचार्य सुमतिसिंह पाटन आये। जनता के पूछने पर इन्होंने कहा कि हम सार्थपूर्णिमियागच्छ से सम्बन्धित हैं। इस गच्छ के अनुयायी जैन प्रतिमाओं की पूजा फलों से नहीं करते।
(2) आगमिकगच्छ : पूर्णिमियागच्छ के दो आचार्य शीलगुणसूरि तथा देवभद्रसूरि थे। ये आंचलगच्छ में सम्मिलित हो गये थे किन्तु शीघ्र ही इन्होंने आंचलगच्छ भी छोड़ दिया और अपना एक नया गच्छ प्रारम्भ कर दिया। इन्होंने शिक्षा दी कि प्रार्थना क्षेत्र देवता को समर्पित न की जावे। इसके अतिरिक्त इन्होंने
और नवीन मत प्रतिपादित किये तथा अपने गच्छ को आगमिक गछ नाम दिया। इस गछ की उत्पत्ति ई.सन् 1157 या 1193 ई.सन् में मानी जाती है किन्तु इसका प्रचार-प्रसार 15वीं शताब्दी में ही हुआ।
(3) चन्द्रगच्छ : यह कुल गच्छ है। चन्द्र कुल समयांतर से चन्द्रगच्छ में परिवर्तित हो गया। इसकी उत्पत्ति किस प्रकार और कब हुई कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
(4) नागेन्द्रगच्छ : नागेन्द्र कुल से यह नागेन्द्रगच्छ हुआ। इस गच्छ के विषय में भी कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
... (5) निवृत्तिगच्छ : ऐसा प्रतीत होता है कि यह भी निवृत्ति कुल से समयांतर से निवृत्ति गच्छ कहलाने लगा। इसके विषय में भी कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं।
. उपर्युक्त गच्छों की जानकारी तो मात्र एक झलक है क्योंकि जैनधर्म में इस प्रकार के गच्छों की भरमार है। फिर इनके भी उपगच्छ हैं। श्री व्ही.ए.सांगवे ने 87 गच्छों की सूची दी है। किन्तु वर्तमान काल में ऐसा प्रतीत होता है कि कई गच्छों का अब अस्तित्व ही नहीं रहा। इस प्रकार गच्छों के विषय में और अधिक विस्तार में जानना उचित प्रतीत नहीं होता है। दूसरे बाद में जो गच्छों की उत्पत्ति हुई उनमें अधिकांश 13वीं 14वीं शताब्दी के अथवा उसके बाद के हैं जो हमारे क्षेत्र के बाहर
दिगम्बर संघ : जैनधर्म के दो भागों में विभक्त हो जाने के उपरांत अनेक उपभेदों में बंद गया और उन उपभेदों में भी कई विभाग एवं उपविभाग हो गये। जैसे संघ गण, गच्छ और शाखा। दिगम्बर मत में निम्नांकित प्रमुख संघों का उदय हुआ
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