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________________ (2) भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष प्राप्ति के उपरांत कुछ साधुओं ने पांचवें गणधर श्री सुधर्मस्वामी का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। ये श्रीसुधर्म गणधर की परम्परा के श्वेताम्बर साधु आज भी विद्यमान हैं। इनके 84 गच्छ थे। तपगच्छ उसी परम्परा का एक अंग है। (3) तीसरी संस्था 'आजीविक मत' वालों की थी जिसका नेतृत्व मक्खलीपुत्त गोपाल के हाथ में था। इस संस्था में साधु नग्नावस्था में रहते थे, इसलिये ऐसी व्यवस्था थी कि ये एकांत में रहें। किन्तु जब मक्खलीपुत्त गोषाल की मृत्यु हो गई तब ये आजीविक पुनः भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित हो गये। विस्तृत अध्ययन के लिये डॉ.ए.एल.बाथम की पुस्तक आजीविकाज दृष्टव्य है। श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव : मालवा में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के अनुयायी प्रचुर मात्रा में निवास करते हैं। इन दोनों सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव ई.सन् 76 या 82 में हुआ। दोनों सम्प्रदाय विभक्ति के अपने-अपने कारण बताते हैं। श्वेताम्बर मतावलम्बी दिगम्बर मतावलम्बियों की उत्पत्ति के लिये निम्नांकित स्पष्टीकरण देते हैं। शिवभूति नामक एक साधु को रथवीरपुर के राजा द्वारा एक मूल्यवान कम्बल भेंट में दिया गया था। इस कम्बल के प्रति शिवभूति को अत्यधिक मोह हो गया। उसके गुरु को जब इस घटना की जानकारी मिली तो, उन्होंने शिवभूति को आदश दिया कि वह कम्बल के टुकड़े करदे किन्तु शिवभूति ने कम्बल के टुकड़े करने से इन्कार कर दिया तथा क्रोधावस्था में वह वहां से दूर भाग गया और उसने दिगम्बर मत को जन्म दिया। भगवान महावीर के 609 वर्ष पश्चात् शिवभूति नामक व्यक्ति ने रथवीरपुर में 'बोडीय' नामक सम्प्रदाय को जन्म दिया था।' - डॉ.एस.बी.देव ने इसी घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है: शिवभूति ने अपने राजा के लिये अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की थी तथा राजा ने उसके प्रति काफी सम्मान भी प्रकट किया था। स्वाभाविक रूप से शिवभति अपने घर रात्रि को देर से जाने लगा। उसी प्रकार एक दिन जब उसकी पत्नी ने शिवभूति की माँ से उसके रात्रि को देर से आने की शिकायत की तो शिवभूति की माँ ने उसके देर से आने पर कहा कि तुम अब वहीं जाओ जहां तुम्हारे लिये द्वार खुले हों। शिवभूति उत्तर सुनकर वापस चल दिया और एक . आश्रम में जा पहुंचा। शिवभूति ने आश्रम के प्रधानाचार्य से दीक्षा मांगी। किन्तु प्रधानाचार्य ने दीक्षा देने से इन्कार कर दिया। इस पर शिवभूति ने स्वयं अपने हाथों केश लुंचन कर साधु के वेश में रहना प्रारंभ कर दिया। कुछ समय उपरांत यह स्वयं दीक्षित क Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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