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अध्याय - 3 जैनधर्म में भेद-उपमेद
जैनधर्म के भेद-उपभेद : भारत के अन्य धर्मों के समान ही जैनधर्म के भी भेद-उपभेद हैं। ये वैचारिक मतभेदों के ही परिणाम हैं। जिस प्रकार बीज अंकुरित होते समय एक ही दिखाई देता है, किन्तु वृक्ष हो जाने पर उसी में शाखाएं-प्रशाखाएं फूट जाती है यद्यपि मूल रूप में सभी शाखाओं के फल एवं फूल समान ही होते हैं, ठीक उसी प्रकार जैनधर्म भी अंकुरित होकर भेदों-उपभेदों से समृद्ध हुआ है। समय के प्रवाह के साथ जैनधर्म में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई तथा उसके सिद्धान्तों एवं आचार आदि के सम्बन्ध में मतभेद उत्पन्न होते गये। जो व्यक्ति अपने मत को नयी दृष्टि देता, उसका प्रबलता से समर्थन करता था वह अपनी क्षमता के अनुसार अपने सिद्धान्त का प्रचार करता। या तो वह नया वाद या संघ चलाता या विपरीत सिद्धान्त के प्रति नतमस्तक हो जाता। किन्तु इस प्रकार के मतभदों से किसी भी धर्म अथवा समाज को लाभ नहीं होता, इसलिये जैनधर्म को भी इन विवादों से हानि उठानी पड़ी।
महावीर के समय में मत वैभिन्न : जैनधर्म के ये विवाद या भेद वर्तमान में उत्पन्न हुए हों, ऐसी बात नहीं है। स्वयं भगवान् महावीर के समय में भी पार्श्वनाथ के मत को मानने वाले थे जो चातुर्याम धर्म में विश्वास रखते थे और जिसमें भगवान् महावीर ने सदाचार, ब्रह्मचर्य, पवित्रता, नम्रता, परिमार्जन आदि की प्रतिज्ञाएं और सम्मिलित कर दी थीं। भगवान् महावीर के समय में ही तीन श्रमण संस्थाएं निम्नानुसार बन गयी थीं
(1) भगवान महावीर की परम्परा के श्रमण संघ के, प्रधानाचार्य श्री कैशीस्वामी थे। इन्होंने श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर के साथ विचार-विमर्श कर महावीर स्वामी के मत को स्वीकार कर लिया था। इनकी शिष्य परम्परा आज भी 'पार्श्वनाथ संतानीय' उपकेशगच्छ और 'कवलागच्छ के नाम से प्रसिद्ध है, ऐसी श्वेताम्बर परम्परा है।
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