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________________ होकर आचार्य कालक ने शकों को आमंत्रित किया कि वे गर्दभिल्ल के दर्प को चूर्ण कर दें। युद्धोपरांत मालवा में शकों का राज्य हो गया था। इस घटना में जनता का भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कालकाचार्य को सहयोग रहा ही होगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस काल जैनधर्म की स्थिति उत्तम रही होगी। इस युग में अनेक युगप्रधान जैनाचार्य भी हो चुके हैं जिनमें भद्रगुप्ताचार्य, आर्य वज्र तथा आर्य रक्षितसूरि के नाम गिनाये जा सकते हैं। आगम साहित्य को आर्य रक्षितसूरि ने चार भागों में विभक्त करके जैनधर्म की दृष्टि से इस युग के ऐतिहासिक महत्त्व को और भी बढ़ा दिया था। । यद्यपि मालवा में इस युग का कोई पुरातात्विक अवशेष अद्यावधि प्राप्त नहीं हुआ है, तथापित मथुरा क्षेत्र में इस युग की प्रतिमाएं तथा प्रतिमा लेख प्राप्त हुए हैं जिससे भी हम यह अनुमान कर सकते हैं कि इस काल जैनधर्म उन्नतावस्था में था। गुप्तकालीन मालवा में जैनधर्म : भारतीय इतिहास में गुप्तकाल स्वर्णयुग के नाम से चिरपरिचित है। यह युग सर्वांगीण विकास का था। गुप्त राजा वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम और स्कन्दगुप्त तीनों के सिक्कों पर 'परमभागवत खुदा होना गुप्तों की उस धर्म में विशेष निष्ठा सूचित करता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य धर्मों की स्थिति नगण्य थी अथवा कि राजा दूसरे धर्मों का आदर नहीं करते थे। गुप्त राजा सभी धर्मों को समान आदर की दृष्टि से देखते थे। इसका प्रमाण यह है कि इस काल लगभग सभी धर्मों के अच्छी स्थिति में होने के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। मालवा में जैनधर्म के लिये यह युग अपना विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि इसी युग में जैनधर्म से सम्बन्धित पुरातात्विक सामग्री मिलना प्रारंभ होती है। इतिहास प्रसिद्ध नगर विदिशा के पास उदयगिरि की पहाड़ी में बीस गुफाएं हैं, जो इसी युग की हैं। इनमें से क्रम से प्रथम एवं बीसवें नम्बर की गुफाएं जैनधर्म से सम्बन्धित हैं। पहले नम्बर की गुफा में एक लेख खुदा हुआ है जिससे सिद्ध होता है कि यह गुफा गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल की है। बीसवें नम्बर की गुफा में भी एक पद्यात्मक ....... लेख खुदा हुआ है जिसके अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा गुप्त संवत 106 (ई.सन् 426 कुमारगुप्त का काल) में कार्तिक कृष्ण पंचमी को आचार्य भद्रान्वयी आचार्य गौशर्म मुनि के शिष्य शंकर द्वारा की गई थी। इस शंकर ने अपना जन्म स्थान उत्तर भारतवर्ती कुरु देश बतलाया है।4 मूल लेख इस प्रकार है। 25 | 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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