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________________ मिलने वाले चन्द्रगुप्ति के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। श्री सत्यकेतु विद्यालंकार चन्द्रगुप्ति को प्रथम मौर्य सम्राट न मानकर अशोक का पौत्र और कुणाल का पुत्र मानते हैं जो इतिहास में सम्प्रति के नाम से विख्यात है।13 कुणाल के समय विदिशा जैनियों का केन्द्र था।" द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष तथा मुनियों के जाने की कथा अन्यान्य ऐतिहासिक तथ्यों से प्रमाणिक सिद्ध होती है।15 तब यह भी प्रमाणित हो जाता है कि इस समय मालवा में जैनधर्म अच्छी अवस्था में था तथा निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा था। साथ ही जैनधर्म का इस समय पूर्व में अंग मगध, दक्षिण में कौशाम्बी, पश्चिम में गुजरात तथा उत्तर में कर्नाल तक प्रसार हो रहा था। साथ ही उज्जयिनी के आसपास वाले प्रदेशों में जैनधर्म का दृढ़ प्रभाव था।" अशोक की मृत्यु के उपरांत मौर्य साम्प्रज्य दो भागों में बंट गया था।18 पूर्वी राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र थी और वहां दशरथ राज कर रहा था। पश्चिमी राज्य की राजधानी उज्जयिनी थी और वहां सम्प्रति का राज था।19 सम्प्रति का जैन साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान है। जैन अनुश्रुति के अनुसार सम्राट सम्प्रति जैनधर्म का अनुयायी था और उसने अपने प्रियधर्म को फैलाने के लिये बहुत प्रयत्न किया था। परिशिष्ट पर्व में लिखा है कि रात्रि के समय सम्प्रति को यह विचार उत्पन्न हुआ कि अनार्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार हो और जैन साधु स्वछन्द रीति से विचर सके। इसके लिये उसने इन देशों में जैन साधओ को धर्म प्रचार के लिये भेजा। साधु लोगों ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही जनता को जैनधर्म और आचार का अनुगामी बना लिया। इस काल के लिये सम्प्रति ने बहुत से लोकोपकारी कार्य भी किये। गरीबों को मुफ्त भोजन बांटने के लिये अनेक दानशालाएं खुलवाई। अनेक जैन ग्रन्थों में लिखा है कि धर्म प्रचार के लिये सम्प्रति ने अपनी सेना के यौद्धाओं को साधुओं का वेश बनाकर प्रचार के लिये भेजा था। युगपुराण के अनुसार जब सम्प्रति तलवार के बल पर लोगों को जैनधर्म में दीक्षित कर रहा था उस समय दिमित ने सम्प्रति से जनता की रक्षा की इससे जनता ने दिमित को धर्ममीत (धर्ममीत - देमित्रियस) कहा। शक कुषाण युगीन मालवा में जैनधर्म : इस समय भी मालवा में जैनधर्म पर्याप्त उन्नतावस्था में था। इसका आभास हमें कालकाचार्य कथानक से मिलता है। आचार्य कालक ने शकों को अवंति पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया था जिसका एक मात्र कारण यह था कि अवंति नरेश गर्दभिल्ल ने आचार्य कालक की भगिनी जैन साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण कर लिया था। सभी प्रयत्नों के बावजूद जब गर्दभिल्ल ने सरस्वती को मुक्त नहीं किया तो बाध्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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