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________________ किया। मार्ग में वर्षा प्रारंभ हो गई। जैन मतावलम्बी होने के कारण उदायन चातुर्मास हेतु वहीं रूक गया। पर्युषण पर्व के अवसर पर उदायन को उपवास था। चण्डप्रद्योत से भोजन के लिये पूछा गया तो उसने भी भोजन करने से इन्कार कर दिया। राजा उदायन ने चण्डप्रद्योत को अपना सहधर्मी समझकर छोड़ दिया और प्रतिमा भी दे गया। उदायन के चातुर्मास करने से एक नया नगर बस गया। जो शिवना नदी के तट पर आज भी दशपुर या मन्दसौर के नाम से विख्यात है। चण्डप्रद्योत ने इस स्थान पर मंदिर का निर्माण करवाया तथा उसके व्यय आदि की पूर्ति के लिये बारह सौ गांव दान में दिये। बाद में इस प्रतिमा का उल्लेख विदिशा में प्रतिष्ठित होने के सिलसिले में पाया जाता है। चण्डप्रद्योत ने ऐसी ही एक और जीवंतस्वामी की प्रतिमा बनवाई थी जिसकी प्रतिष्ठा उज्जैन में करवाई गई थी। चण्डप्रद्योत की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र पालक सिंहासन पर बैठा दूसरा पुत्र गोपाल गणधर्म सुधर्मस्वामी से दीक्षा लेकर जैन साधु हो गया। मृच्छकटिक" से विदित होता है कि पालक को विस्तृत यज्ञ में पशु के समान मार दिया गया था। वैसे मृच्छकटिक एक महान क्रांति की ओर संकेत करता है। राजा से असंतुष्ट प्रजा उसे समाप्त कर देती है तथा दूसरे अपने मन पसन्द व्यक्ति को राजा बना दिया जाता है। उस युग की यह महान् घटना है। पालक की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र अवंतिवर्धन सिंहासन पर बैठा। अवंतिवर्धन् ने अपने भाई राष्ट्रवर्धन का वध किन्हीं कारणों से करवा दिया। राष्ट्रवर्धन की पत्नी धारिणी गर्भवती थी। वह कौशाम्बी चली गई और वहां जैन साध्वी हो गई। वहीं उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसका पालन-पोषण कौशाम्बी के राजा अजितसेन ने किया। अजितसेन निःसन्तान था। बालक का नाम मणिप्रभ रखा गया। इधर अवंतिवर्धन ने अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये वीर संवत् 24 में जम्बूस्वामी के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अवंतिवर्धन के बाद उज्जैन की गद्दी पर राष्ट्रवर्धन का पुत्र अवंतिवर्धन तथा अजितसेन के बाद कौशाम्बी की गद्दी पर मणिप्रभ विराजमान हुए। कौशाम्बी और अवंति की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। अवंतिवर्धन ने कौशाम्बी पर आक्रमण कर उसे घेर लिया। दोनों राजा भाई भाई है, इस सम्बन्ध से अपरिचित थे। साध्वी माता धारिणी ने आकर दोनों भाइयों का परिचय करवाया, तब कहीं जाकर परम्परागत शत्रुता समाप्त हुई। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उज्जैन और कौशाम्बी के मध्य वत्सिका नदी के किनारे गुफा में मुनि धर्मघोष जहां ध्यान धारण कर खड़े थे, वहां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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