SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया। उन्होंने अपने युग में प्रचलित समाज व धर्म के दोषों के विरुद्ध आवाज उठाई। महावीर जैनधर्म के अंतिम और चौबीसवें तीर्थंकर हुए। वास्तव में जैनधर्म महावीर के समय से ही उभर कर सामने आया जिसके परिणाम स्वरूप जैनधर्म का प्रचार एवं प्रसार भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों में हुआ। अंतिम तीर्थंकर महावीर अपने साधनामय जीवन में एकान्त स्थानों में विचरण करते और ध्यान करते थे। उन्होंने बारह वर्ष साधनामय जीवन में व्यतीत किये थे। जिस समय वह उज्जयिनी के निकट अतिमुक्तक नामक श्मशान भूमि में आकर ध्यान मग्न हुए थे उस समय रुद्र नामक व्यक्ति ने उन पर घोर आक्रमण किया था, परन्तु वह अपने ध्यान में दृढ़ और निश्चल बने रहे। रुद्र की रौद्रता उनको तपस्या से विचलित न कर सकी। पशुबल आत्मबल के समक्ष बतमस्तक हुआ। रुद्र इन्द्रियजमी महावीर के चरणों में गिरा और उसने उनका 'अतिवीर नाम रखा। उज्जयिनी आत्मबल की महत्ता को अपने अंचल में छुपाये है आत्मवीर ही उसे देखते और गौरवान्वित होते हैं। ... मालवा धर्म की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व के मर्मज्ञ डॉ.भगवतशरणजी उपाध्याय के अनुसार मालवा का अन्तर्राष्ट्रीय मार्ग के रूप में भी विशिष्ट स्थान था और उज्जैन तो दक्षिण को उत्तर से जोड़ता था। डॉ.उपाध्यायजी दक्षिण भारत से उत्तर भारत के राष्ट्रीय मार्ग को स्पष्ट करते हुए उस मार्ग को अन्तराष्ट्रीय मार्ग, जो खैबर के दर्रे की ओर से जाता था, से जोड़ते हैं।1० तो ऐसे मालवा में जो हर क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखता है, हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैनधर्म का प्रचार-प्रसार एवं विकास किस प्रकार हुआ? चण्डप्रद्योत के जैनधर्मावलम्बी होने के विषय में त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र में उल्लेख मिलता है कि सिंधुसौवीर के राजा उदायन के पास भगवान महावीर की एक चन्दन निर्मित प्रतिमा थी जिसका उल्लेख जीवंतस्वामी के नाम से जैन साहित्य में मिलता है। राजा उदायन एवं उसकी रानी प्रभावती सदैव उस प्रतिमा की पूजा किया करते थे। प्रभावती की मृत्यु के उपरांत इस प्रतिमा की पूजा दासी देवनन्दा या देवदत्ता किया करती थी। देवनंद चण्डप्रद्योत के प्रेम में पड़ गई। इस मूल प्रतिमा के स्थान पर दूसरी चन्दन की प्रतिमा रखकर चण्डप्रद्योत दासी देवनंद तथा प्रतिमा को उज्जैन ले आया। जब यह भेद उदायन पर प्रकट हुआ तो उसने उज्जैन पर आक्रमण कर दिया। चण्डप्रद्योत हारा और बन्दी बना लिया गया। प्रतिमा एवं युद्धबन्दी को लेकर उदायन ने अपने देश के लिये प्रस्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy