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________________ थे और न्यायरूप कमल समूह को विकसित करने वाले दो-दो मणि भास्कर) सदृश थे और पंडितरूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य तथा रूद्रवादि दिग्गज विद्वानों को वश में करने के लिये अंकुश के समान थे तथा चतुर्मुखी देव के शिष्य थे। दोनों ही शिलालेखों में उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान् जान पड़ते हैं। हां द्वितीय लेख 55 में चतुर्मुख देव का नाम नया जरूर है, पर यह सम्भव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिण देश से धारा में आने के पश्चात् देशीयगण के विद्वान चतुर्मुख देव भी उनके गुरु रहे हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि गुरु भी तो कई प्रकार के होते हैं, दीक्षा गुरु-विद्या गुरु आदि। एक-एक विद्वान् के कई-कई गुरु और कई-कई शिष्य होते थे। अतएव चतुर्मुख देव भी प्रभाचन्द्र के किसी विषय के गुरु रहे हों, और इसलिये वे उन्हें समादर की दृष्टि से देखते हों तो कोई आपत्ति की बात नहीं। अब रही समय की बात सो ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड को राजा भोज के राज्यकाल में बनाया है। राजा भोज का राजकाल सं.1070से 1110 तक था। उसके राजकाल के दो दानपत्र सं.1076 और सं. 1079 के मिले हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने देवनंदी की तत्वार्थवृत्ति के विषमपदों का एक विवरणात्मक टिप्पण लिखा है। उसके प्रारम्भ में अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह का निम्नांकित पद्य उद्धृत किया है.. वर्गः शक्ति समूहो णोरणूनां कर्णनोदितां वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धक स्पर्धकाप हैः।। अमितगति ने अपना यह पंचसंग्रह मसूतिकापुर में जो वर्तमान में मसूदविलोद ग्राम के नाम से प्रसिद्ध है, वि.सं.1073 में बनाकर समाप्त किया है। अमितगति धाराधिप मुंज के सभारत्न भी थे। इससे स्पष्ट होता है कि प्रभाचन्द्र ने अपना उक्त टिप्पण वि.सं.1073 के बाद बनाया है, यह बात अभी विचारणीय है। न्यायविनिश्चय के विवरण के कर्ता आचार्य वादिराज ने अपना पार्श्वनाथचरित्त शक संवत् 947 (वि.सं. 1082) में बनाकर समाप्त किया। यदि राजा भोज के प्रारम्भिक राजकाल में प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाया होता तो वादिराज उसका उल्लेख अवश्य ही करता। इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय तक प्रमेयकमलमार्तण्ड की रचना नहीं हुई थी। हां, सुदर्शनचरित के कर्ता मुनि नयनंदी ने, जो माणिक्यनंदी के प्रथम विद्या शिष्य थे और प्रभाचन्द्र के समकालीन गुरुभाई भी थे, अपना 'सुदर्शनचरित' विक्रम संवत् 1100 में बनाकार समाप्त 148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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