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श्वेताम्बर दिगम्बर भेदों की उत्पत्ति बताई गई है, तत्पश्चात् संघ, गण, गच्छ तथा अन्य सम्प्रदाय जैसे चैत्यवासी, स्थानकवासी और पंथ जैसे बीसापंथ, तारणपंथ, तेरापंथ, तोतापंथ, गुमानपंथ आदि पर प्रकाश डाला गया है। भट्टारकों की उपलब्ध पट्टावलियां भी दी गई हैं। चूंकि अधिकांश उपभेद हमारी समय सीमा के पर्याप्त बाद के हैं, उन पर विस्तार से चर्चा न करके उत्पत्ति व समय आदि पर ही विचार किया गया है।
(3) जैनधर्म में विभिन्न जातियां व गोत्र- जैनधर्म में पाई जाने वाली प्रमुख जातियों की उत्पत्ति, उत्पत्ति का समय तथा उनके गोत्रों की संख्या बताई गई है। (4) जैन कला जैन कला नाम अध्ययन की सुविधा के लिये दिया गया है। वास्तव में इसे भारतीय कला से अलग नहीं किया जा सकता। इसमें प्रथम स्थापत्य कला जैन लक्षणों के सन्दर्भ में, मालवा के जैन मंदिरों, गुफाओं आदि पर प्रकाश डाला गया है। मूर्तिकला के अन्तर्गत मूर्तिकला की विशेषताएं, मूर्तिलक्षण, तीर्थंकर विशेष के व्यक्तिगत चिह्न आदि को बताते हुए मालवा में प्राप्त जैन मूर्तियों की कला पर प्रकाश डाला गया है। जैन चित्रकला के उपयोग में आने वाले रंगों, उपकरणों आदि के साथ ही चित्रों की विशेषताओं पर भी विचार व्यक्त किया गया है।
(5) मालवा में जैनतीर्थ इस प्रसंग में जैनधर्म के अनुसार तीर्थ की व्याख्या की गयी है और मालवा के दिगम्बर तथा श्वेताम्बर तीर्थों पर प्रकाश डाला गया है।
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(6) जैन वाड्मय - इस अध्याय के अन्तर्गत मालवा में जैन साहित्य के निर्माताओं की देन पर चर्चा हुई है साथ ही इसमें साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे दार्शनिक तथा आगम साहित्य, कथासाहित्य, काव्य आदि पर विवेचन हुआ है। (7) जैनशास्त्र भण्डार इस अध्याय के अन्तर्गत मालवा के शास्त्र भण्डारों की चर्चा की गई है। इनमें ग्रन्थों की सुरक्षा, प्रतिलिपि निर्माण आदि का भी निरूपण हुआ है!
(8) मालवा के प्रमुख जैनाचार्य इस अध्याय के अन्तर्गत मालवा के प्रमुख जैनाचार्यों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कई आचार्य तो युग-प्रधान हुए हैं।
शोध-प्रबन्ध का क्षेत्र - ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व से लगभग 1200 ई. सन् तक के समय को शोध-प्रबन्ध की काल सीमा मानकर यह शोध-प्रबन्ध लिखा गया है। किन्तु इस प्रकार के बन्धन का निर्वाह केवल अपनी सुविधा से करना आसान नहीं होता, इस कारण कहीं-कहीं हम अपने इस प्रतिबंध को लांघ गये हैं।
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