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________________ छोड़कर धनगिरि ने सिंहगिरि से दीक्षा ले ली। कालान्तर में बच्चे का जन्म हुआ तो अपने पिता के दीक्षा लेने की बात सुनकर बालक को जाति स्मरण ज्ञान हुआ। माता का मोह कम करने के लिये बालक दिन रात रोया करता। एक दिन धनगिरि और समित भिक्षा के लिये जा रहे थे। उस समय शुभ लक्षण देखकर उनके गुरु ने आदेश दिया कि जो भी भिक्षा मिले ले लेना। ये दोनों साधु भिक्षा के लिये चले तो सुनन्दा ने (जो बच्चे से ऊब गयी थी) बच्चे को धनगिरि को दे दिया। उस समय बच्चे की उम्र 6 मास की थी। धनगिरि ने बच्चे को झोली में डाल लिया और लाकर गुरु को सौंप दिया। अतिभारी होने के कारण गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रख दिया और पालन पोषण के लिये किसी गृहस्थ को दे दिया। श्राविकाओं और साध्वियों के सम्पर्क में रहने से बचपन में ही बालक को ग्यारह अंग कंठस्थ हो गये। बालक की आयु जब तीन वर्ष की हुई तब उसकी माता ने राजा की सभा में विवाद प्रस्तुत किया। राजसभा में बालक को उसकी माता ने बड़े प्रलोभन दिखाए परन्तु बालक उस और तनिक भी आकर्षित नहीं हुआ और धनगिरि के पास जाकर उनका रजोहरण उठा लिया। ___ . आठ वर्ष की उम्र में वज्र को गुरु ने दीक्षा दे दी। उसी कम उम्र में ही देवताओं ने उन्हें वैक्रियलब्धि और आकाशगामिनी विद्या दे दी। वज्रस्वामी ने उज्जयिनी में भद्रगुप्त से दस पूर्व की शिक्षा ग्रहण की। कालान्तर में आर्यवज्र पाटलिपुत्र गये। वहां रुक्मिणी नामक एक श्रेष्ठि कन्या ने आर्य वज्र से विवाह करना चाहा, परन्तु आर्यवज्र ने उसे दीक्षा दे दी। पाटलिपुत्र से आर्यवज्र पुरिका नगरी आये। वहां के बौद्ध राजा ने जिन मंदिरों में पुष्पों का निषेध कर दिया था अतएव पर्युषण में श्रावकों की विनती पर आकाशगामिनी विद्या द्वारा माहेश्वरीपुरी जाकर एक माली से पुष्प एकत्र करने को कहा और स्वयं हिमवत पर जाकर श्री देवीप्रदत्त हुताशनवन से पुष्पों के विमान द्वारा पुरिका आये और जिन शासन की प्रभावना की तथा बौद्ध राजा को भी जैन बनाया।18 प्रकट है कि इन किंवदन्तियों का कोई अर्थ नहीं। एक दिन आर्यवज्र ने कफ के उपशमन के उद्देश्य से कान पर रखी सोंठ प्रतिक्रमण के समय भूमि पर गिर गयी। इस प्रमाद से अपनी मृत्यु निकट आयी जानकार आर्यवज्र ने, अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, "अब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा। जिस दिन मूल्यवाला भोजन तुम्हें भिक्षा में मिले उससे अगले दिन सुबह ही सुभिक्ष हो जावेगा।" यह कहकर उन्होंने शिष्यों को अन्यत्र विहार करा दिया और स्वयं रथावर्त पर्वत पर जाकर अनशन करके देवलोक चले गये। यह 139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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