SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस मंदिर को कब और किसने बनवाया इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती किन्तु किंवदंति है कि कोई सक्षम यति इस मंदिर को कहीं से उड़ाकर यहां लाये थे। इसके जीर्णोद्धार के समय इसका प्राचीन भाग नष्ट हो गया किन्तु मंडप में अभी भी प्राचीनकाल के चार स्तम्भ विद्यमान है जिनके आधार पर यह अनुमान किया जाता है कि यह मंदिर 12वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। भादवा शुक्ल द्वितीया को प्रतिवर्ष यहां मेला लगता है। 15 (21) सिद्धवरकूट : यह स्थान बड़वाह से 6 मील, मोरटक्का से 7 मील तथा सनावद से 8 मील दूर है। अजमेर से निकलने वाले 'जैनप्रभाकर' पत्र में यह प्रकाशित हुआ था कि धारा के हट जाने से औंकारेश्वर के पास पुराने मंदिरों के कुछ अवशेष निकल आये हैं और यह अनुमान किया गया कि यहीं निर्वाणकाण्ड का सिद्धवरकूट था। यहां का राजा भिलाला जाति का है और इस वंश का अधिकार सन् 1135 से औंकारेश्वर पर चला आ रहा है। संवत् 1746 में निकलनेवाले तीर्थयात्री श्री शीलविजयजी ने अपनी तीर्थमाला में नर्मदा के पास के समस्त जैन अजैन तीर्थों का वर्णन किया है। पहले शैवों के मांधाता का वर्णन करके, जो वर्तमान सिद्धवरकूट के बहुत पास है, वे खण्डवा और बुरहानपुर की ओर चले जाते हैं। तीर्थावली में भी जो कि सत्रहवी शताब्दी की है, सिद्धवरकूट का नाम नहीं है, पर खण्डवा का है। इससे मालूम होता है कि उस समय इस तीर्थ का अस्तित्व नहीं था। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने भी इसे काफी अर्वाचीन तीर्थ माना है। 48 पं. परमानंद जैन शास्त्री " अपनी तीर्थयात्रा के संस्मरण के समय सिद्धवरकूट के विषय में लिखते हैं कि निर्वाणकांड की गाथा में उसका उल्लेख इस प्रकार है: रेवा णहए तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे। दो चक्की दहकप्पै हुट्ठ य कोडि णिब्बुदे वंदे । । परन्तु कुछ अन्य प्रतियों में उक्त गाथा की बजाय निम्न दो गथाएं उपल्ब्ध होती हैं जिनमें द्वितीय गाथा के पूर्वार्ध में संभवनाथ की केवलुप्पुतित का उल्लेख किया गया है- जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता: रेवा तडम्मितीरे दिव... भायम्मि सिद्धवरकूटे। आट्ठय कोडीओ णिव्वाण गया णमो तेसिं । । रेवा तडम्मि तीरे सम्भवण हस्स केवलुप्पतित । आर कोडीओ णिव्वाण गया णमोतेसिं । । संस्कृत सिद्धभक्ति में भी 'वरसिद्धकूटे' नाम से उल्लेख मिलता है। ब्रह्मश्रुतसागर में भी सिद्धवरकूट का उल्लेख किया गया है। सिद्धवरकूट की Jain Education International For Personal & Private Use Only 103 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy