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________________ उदय होता है, न उपशम, न क्षय, न क्षयोपशम होता है, पारिणामिक- भाव औदायिक-भाव नहीं है, जितने भी औदायिक भाव है, वे कर्म सापेक्षता से देखें, तो सहज कर्म भी विपाक है। जहाँ राग-द्वेष विकल्पों के सविकल्प-भाव का अभाव है। ममत्व परिणाम का विसर्जन कर दिया है, सारे विश्व के रागद्वेष का मूल कारण ममत्व परिणाम है, जो ममत्व भाव का त्याग कर देता है, तो परम पारिणामिक भावों की और अग्रसर हो जाता है, जहाँ ममत्व भाव है, वहाँ समता की बात करना, अग्नि में कमल - वन को देखने जैसा है। भवातीत की अनुभूति उसी परम योगी को होती है जिसको विषय-कषाय, आर्त्त-रौद्र, रागद्वेष, मान-कषाय, लोभ, काम, क्रोध, जाति, लिंग, पन्थ, सम्प्रदाय, गण-गच्छ, संग, संघ, दक्षिण-उत्तर, पूर्व-पश्चिम, संघ-उपसंघ, गणी-गणाचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गणधर, नगर, महानगर, जनपद, ग्राम, शमशान, भवन, जंगल, स्त्री-पुरुष, बाल-पुरुष, बाल-युवा-वृद्ध की कारण – भूत भावनाओं से अतीत हुए बिना भवातीत की अनुभूति स्वप्न में भी होने वाली नहीं है।" सातों तत्त्वों में से एक तत्त्व पर अनास्था भाव है, तो सम्यक्त्व भाव नहीं होता। इन तत्त्वों को सरिता के दो तटों से निहारो। निश्चय से एक तट शुद्धात्मतत्त्व है, दूसरे व्यवहार से सातों तत्त्व हैं, जिनके मध्य श्रद्धा का नीर प्रवाहित होता है, जिस पर सम्यक् चारित्र की नौका चल रही है और नय-प्रमाण की पतवार सम्यग्ज्ञान है, आत्म धर्म नाविक है, जिस पर आत्म पुरुष सवार है, मोक्षतत्त्व जिसका मार्गी है, रत्नत्रय मार्ग है।" तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है। लोक में अनेक प्रकार की विचारधारायें हैं सभी के अपने सिद्धांत हैं, बुद्धियों के विकार हैं, चिंतन सम्यक् भी है विपरीत भी हैं। विपरीत तत्त्व को ग्रहण करने में सरलता है, क्योंकि अधोगमन शीघ्र होता है। कठिन तो ऊर्ध्वगमन है। अपनी बुद्धि एवं शक्ति का ऊर्ध्वगमन करना चाहिए । विचारों की निर्मलता एवं चारित्र की पवित्रता ऊर्ध्वगमन के साधन हैं। आत्मस्वरूप के विशेष कथन में शिष्य प्रश्न करता है कि आत्मा विधिरूप है या निषेधरूप है, मूर्तिक है या अमूर्तिक है? ये दो-दो धर्म वस्तु में कैसे हो सकते हैं? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य अकलंक देव श्लोक-8 का विवेचन करते हैं स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्म-परधर्मयोः। समूर्तिर्बोधमूर्तित्वामूर्तिश्च विपर्ययात्॥ अर्थात् वह आत्मा स्वधर्म एवं परधर्म के कथन करने में विधिरूप भी है और निषेधरूप भी है। साथ ही वह आत्मा ज्ञानमूर्ति होने से मूर्तिमान भी है और ठीक स्वरूप देशना विमर्श -81) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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