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________________ इसके विपरीत अमूर्तिक भी है। इस रहस्य के सम्बन्ध में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य में उभयरूपता है, जो द्रव्य सद्रूप है, वही द्रव्य असद्रूप भी है। स्वचतुष्टय से पदार्थ सद्द्रूप है, परचतुष्टय से असद्रूप भी है । " कथन तो क्रमशः किया जाता है, जब सत् का कथन होगा, तब असत् गौण होगा, जब असत् का कथन होगा, तब सत् गौण होगा, परन्तु प्रत्येक समय सद्भाव 14 15 दोनों का ही रहेगा । " इसी प्रकार मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी - इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी लिखते हैं कि स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण निश्चय से आत्मा में नहीं पाये जाते, इसलिए आत्मा अमूर्तिक स्वभावी है, परन्तु बन्ध की अपेक्षा से, व्यवहारनय की अपेक्षा से मूर्तिक भी है। " द्वितीय संदर्भ में कहते हैं कि ज्ञान साकार होता है, ज्ञान मूर्तिक होने से आत्मा मूर्तिक है। " दार्शनिक संदर्भों की विशेष चर्चा करते हुए उनका कथन है कि जीव को जो अमूर्तिक कहा गया, वह जीव स्वभाव का कथन तो है, साथ ही इस कथन से चार्वाकों के आत्मा विषयक स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादिरूप मूर्तिकत्व का निराकरण भी होता है।' 18 इस प्रकार हम देखते हैं कि ' स्वरूप-सम्बोधन' की विवेचना में आचार्य श्री ने न केवल स्वरूप आत्मा का विवेचन किया है, बल्कि पूजा और आराधना के नाम पर व्याप्त कुरीतियों की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इस ग्रंथ में जहाँ हम सरलतापूर्वक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं, चिन्तन करते हैं, वहीं आज की कुरीतियों को तर्कपूर्ण विवेचनाओं को समझकर उनसे दूर रहने का यथासम्भव प्रयास करते हैं। आचार्य श्री ने स्वरूप - सम्बोधन की विवेचना कर जनसामान्य के ज्ञान-चक्षु खोलने का सफल प्रयत्न किया है। मैं ऐसे सरल और सुबोध विवेचक को बारम्बार नमोस्तु करता हूँ। अन्ततः कहना चाहता हूँ कि आत्मस्वरूप का उक्त प्रतिपादन उपयोगस्वरूपी आत्मा, रत्नत्रय, विधि-निषेध, कर्तृत्त्व - भोक्तृत्व, वस्तुस्वतंत्रय, मूर्त-अमूर्तत्व आदि अनेक विवक्षाओं से किया गया है, वहाँ प्रयोजन यही है कि यह जीव अपने स्वरूप से अनभिज्ञ है। अतएव वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर आत्म अनुभव करे और अपना कल्याण करे। आधारभूत ग्रन्थ- आचार्य अकलंकदेव विरचित, स्वरूप- सम्बोधन परिशीलन, परिशीलनकार, आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज । संदर्भ सूची 1. स्वरूप – सम्बोधन परिशीलन पृ० 21-22 1 82 Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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