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• हैं, सोने-चाँदी के कलश घरों में रखकर/रखाकर उनका उनमें मन लगवाकर
उनकी अपनी स्वतंत्रता का हनन करने में लीन हैं। नग, अँगूठी, मोती, माला इत्यादि में लगाकर सत्यार्थ मार्ग से वंचित कर रहे हैं। अहो प्रज्ञ! हमारी बातें आपको लोक से भिन्न दिखाई दे रही होगी, क्योंकि लोक, आत्मलोक का अवलोकन नहीं है, वहाँ तो लोभ-कषाय, परिग्रह-संज्ञा की ही पुष्टि अधिक है। सामान्य लोगों से लेकर विशिष्ट जन तक उक्त रोग से पीड़ित हैं।
ज्ञानी को स्वयं चिंतन करने का परामर्श देते हुए कहते हैं- क्या भवनों का निर्माण आत्म-निर्वाण का मार्ग है? जो भवन के त्यागी हैं,वे भवन-निर्माण में अपनी निर्वाण दीक्षा के काल को पूर्ण करें, पर कर्त्तापन की इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी? रागी-भोगी जिसका उपयोग करेंगे, उन्हें वीतराग-मुद्रा धारी बनवाएं, यह कलिकाल की बलिहारी कहें या मान का पुष्टिकरण कहें, या फिर मोक्ष-तत्त्व पर श्रद्धा की कमी, या यों कहें कि मोक्षमार्ग कठिन मार्ग है, इस पर ठहरना दुर्लभ है, इसलिए वहाँ से च्युत हुआ जीव भवनों का आलम्बन लेकर समय को पूर्ण कर रहा
है।'
उक्त प्रसंगों के माध्यम से आचार्य श्री ने रत्नत्रय विराधक की चर्चा की है, आगे रत्नत्रय या धर्म से रहित विराधक, आराधक कैसे बन सकता है इसकी सुव्यवस्थित चर्चा आराधक की श्रृंखला में आचार्य श्री ने आत्मस्वरूप के सन्मुख होने के लिए वस्तु-स्वतंत्रय की चर्चा की है अर्थात् प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, कणकण स्वतंत्र है, द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता को जाने बिना भेद-विज्ञान की भाषा अधूरी है। भेद विज्ञान का अर्थ है- प्रत्येक द्रव्य को अन्य-अन्य द्रव्य से अन्य ही स्वीकारना। यह स्वतंत्रता कहने का आग्रह नहीं, पन्थवाद सन्तवाद नहीं, अपितु वस्तु का स्वभाव ही है, कोई विपरीत आस्था कर भी ले, परन्तु वस्तु व्यवस्था कभी विपरीत हो नहीं सकती, यह ध्रुव भूतार्थ है। स्व-प्रज्ञा का सहारा लेकर ही तत्त्व का चिन्तन करना, तत्त्व चिन्तन के लिए पर-प्रज्ञा का सहारा नहीं लेना, जो भी साक्षात् अनुभव होता है, वह स्वप्रज्ञा ही सत्यार्थ है, अन्य प्रज्ञा से जो चलता है, वह कई जगह भ्रमित होता है, जो लोक-शास्त्रों में लौकिक जनों ने लिखकर रखा है, उसे स्वीकार नहीं कर लेना, सत्यार्थ की कसौटी पर कसकर ही तत्त्व के प्रति जिह्वा हिलाएं, अन्यथा मौन रखना ही सर्वोपरि श्रेयस्कर है। जो त्रैकालिक ध्रुव वस्तु का स्वभाव है, वह सहज है, पारिणामिक - भाव जो कि छहों द्रव्यों में अनादि व अनन्त रूप में विद्यमान है, वही किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं कराया गया है वह सहज-भाव है। जीव द्रव्य की अपेक्षा समझें तो जीवत्व-भाव, भव्यत्वभाव, अभव्यत्वभाव-इन भावों का न तो (800
-स्वरूप देशना विमर्श
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