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रहता है, वह किसी भी अवस्था में विनाश को प्राप्त नहीं होगा- यही जीव का सत्यार्थ लक्षण है । 1
आचार्य अकलंकदेव आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह स्वरूप-सम्बोधन ग्रन्थ रत्नत्रय प्रगट कराने में अत्युपयोगी है।' इसके अध्ययन से साधक को एक सम्यक् दिशा प्राप्त होती है, क्योंकि किसी भी अन्य परम्परा से व्यक्ति में श्रद्धान का जन्म नहीं होता । श्रद्धान का उद्गम तो चिंतन की धारा से होता है। आचार्य अकलंक देव ने शुद्ध आत्मा की उपलब्धि के बारे में कहा है कि आत्म स्वरूप की प्राप्ति करने का अंतरंग उपाय रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती है।' इस प्रकार तीनों के माध्यम से आत्मस्वरूप की प्राप्ति कार्यकारी है । रत्नत्रय के विराधक जीवों को आचार्य श्री ने स्वरूप सम्बोधन परिशीलन में अनेक प्रसंगों के माध्यम से समझाया है कि जैन दर्शन में अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य नहीं है, फिर तस्वीरें कैसे पूज्य हैं? तीर्थंकर भगवन्तों के साथ वेदी पर आज अपूज्यों की तस्वीरें रखी जाने लगी हैं तथा भिन्न स्थानों पर भी रखकर पूजा प्रारम्भ है। सामान्य जन आगम कम पढ़ते हैं, अनुकरण अधिक करते हैं। क्या तस्वीरों की पूजा उचित है ? ज्ञानियों! प्रतिष्ठा - ग्रन्थों के अनुसार तीर्थंकर की वेदी पर व अन्यत्र रखकर तीर्थंकर की तस्वीर की पूजा आगमसम्मत नहीं है, फिर पंचकल्याणक प्राण-प्रतिष्ठा की क्या आवश्यकता होती? व्यर्थ में लाखों का द्रव्य प्रतिष्ठा में व्यय क्यों किया जाता है ?
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. रत्नत्रय धारण करके भी साधक अन्य कार्य करता है । अन्य कार्य से मेरा प्रयोजन यह है कि जो रत्नत्रय धर्म है, निश्चय व व्यवहार संयम का पालन करते हुए षट् आवश्यकादि मूलोत्तर गुणों के पालन से भिन्न जो भी कार्य श्रमण करते हैं, तो वे उनके लिए सभी अन्य कार्य हैं। कितनी प्रबल साधना के योग से स्वकार्य की उपलब्धि हेतु जिन-मुद्रा धारण करने को मिलती है। ऐसी त्रिलोक - - पूज्य मुद्रा धारण करके भी जीव निज परमात्म तत्त्व को, कार्य को नहीं साध सका तो यही मानना कि सम्राट पद पर प्रतिष्ठित होकर भी भीख माँगने निकला है। 'मार्मिक सम्बोधन देते हुए आचार्य श्री कहते हैं कि किसी ने देवों के हाथ में स्वयं को दे दिया, किसी ने जादू-टोना को, तंत्र-मंत्र को, किसी ने नगरदेव को, तो किसी ने कुलदेवी को, तो किसी ने अदेवों, तिर्यंचों एवं वृक्षों, खोटे गुरुओं के हाथों में सौंप दिया। इतना ही नहीं आज तो धन-पिपासा की वृद्धि को देखते हुए लोक में साधु-संतो ने भी भोले लोगों की वंचना प्रारम्भ कर दी है। धर्म के नाम पर भयभीत कर धन लूट रहे हैं, कोई श्रीफल को फूँक रहे हैं, तो कोई जीव अपने लाभ को कलशों में निहार रहे
स्वरूप देशना विमर्श
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