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स्वरूप - सम्बोधन परिशीलन में वर्णित आत्मस्वरूप की विभिन्न विवक्षा
-डा० सुमत कुमार जैन
आचार्य अकलंक देव द्वारा विरचित पच्चीस श्लोक प्रमाण स्वरूप सम्बोधन नामक कृति अध्यात्म प्रधान है। इस रचना का जैसा नाम है वैसा ही विषय विवेचन भी है । इसके प्रत्येक श्लोक में आत्म स्वरूप का प्रतिपादन उपलब्ध होता है। आत्म स्वरूप के विवेचन में न्याय - विद्या का सहारा लिया गया है। इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने स्पष्ट कहा है कि इस ग्रन्थ में अनेकान्त - स्याद्वाद शैली का प्रयोग हुआ है। इसके सैद्धान्तिक विवेचन से प्रभावित होकर अध्यात्म-रसिक आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने इस ग्रन्थ के प्रत्येक श्लोक पर विशिष्ट प्रवचन कर इसको अत्यन्त सरल और सुबोध बनाया है, जिस कारण यह जटिल रचना जनसामान्य के लिए हृदय-ग्राह्य बन गयी है।
आत्मस्वरूप का प्रतिपादन प्रायः जैन दर्शन के प्रत्येक ग्रन्थ में प्राप्त होता है, तथापि स्याद्वाद - अनेकान्त से परिपूर्ण इस कृति में आत्मस्वरूप की मीमांसा अद्वितीय है। ग्रन्थों के आलोडन - विलोडन का मुख्य प्रतिपाद्य आत्मस्वरूप का ज्ञान और अनुभव है।
इस आलोच्य ग्रन्थ में आत्मस्वरूप का कथन अनेक अपेक्षाओं से किया गया है- रत्नत्रय, विधि-निषेध, प्रमाण - नय, आत्मकर्तृत्व- भोक्तृत्व, वस्तुस्वतंत्र्य, मूर्त-अमूर्तत्व, द्रव्य-गुण-पर्याय आदि ।
आत्मा के उपयोग लक्षण की चर्चा आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने विस्तृत की है जो इस प्रकार है कि सोऽस्यात्म सोपयोगोऽयम् अर्थात् वह यह उपयोगात्मक आत्मा है। आत्मा उपयोग रहित कभी नहीं होती । उपयोग आत्मा का धर्म है, सत्यार्थ तो यही है कि आत्मा का लक्षण अन्य नहीं है। जो अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है अर्थात् चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता है। आत्मा उपयोग के अभाव में कभी नहीं रहता, चैतन्य गुण ही जीव का सत्यार्थ लक्षण है, चेतना किसी भी अवस्था में नष्ट नहीं होती, जीव चाहे मूर्च्छित हो, चाहे सुप्त अवस्थ में हो अथवा सिद्ध अवस्था में हो, चैतन्य धर्म टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावरूप त्रैकालिक है। संसारी और मुक्त चैतन्य में इतना अन्तर समझना कि संसारी जीव अशुद्ध चेतना में जीता है, मुक्त जीव शुद्ध चेतना से मुक्त होते हैं परन्तु चैतन्यधर्म त्रैकालिक
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-स्वरूप देशना विमर्श
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