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का पुरूषार्थ और यही स्वरूप सम्बोधन है
स्वदेहप्रमितश्चाय, ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः।
ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा॥ 5/139 यह आत्मा अपने शरीर के बराबर है। इस पाँचवीं कारिका में आ० श्री आत्मा को समस्त जगत् में व्याप्त है, ऐसा खण्डन करते हुए कहते हैं कि यह आत्मा अपने शरीर के बराबर है। यह चेतन द्रव्य की परतंत्रता का एक उदाहरण है कि कर्मोदय से जीव जिस शरीर में भी जाता है, उस शरीर में आत्मा की अवगाहना उस शरीर के अनुरूप हो जाती है।
कर्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु।
बहिरन्तरूपायाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि|| 10/270 आत्मा राग, द्वेष, मोह आदि भावों का कर्ता भी है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध करने वाला भी है और वही आत्म उन कर्मों के शुभ-अशुभ रूप कर्मों का भोक्ता भी है। बहिरंग और अन्तरंग उपायों द्वारा उन कर्मों का छूट जाना भी उसी आत्मा में ही होता है। बंधकर्ता भगवान नहीं और बंध छुड़ाने वाला भी भगवान नहीं। तू ही बंध का कर्ता और तू ही बंध का भोक्ता है (224)। आचार्य भगवन् अकलंक देव इस स्वरूप सम्बोधन में आत्मा की उस स्थिति का ही वर्णन कर रहे हैं, जो त्रैकालिक अपनी ध्रुव सत्ता से कभी चलायमान नहीं हुई है।
इस प्रकार स्वरूप सम्बोधन में आ० श्री ने आत्मा की स्वतंत्रता पर भलीभाँति ध्यान आकृष्ट किया है। इसमें आ० श्री ने आत्मा की उस अवस्था का वर्णन किया है जो त्रैकालिक अपनी ध्रुवतत्वता से न कभी चलायमान हुई है और न होगी । कर्मों का कर्ता जीव स्वयमेव है तथा कर्मों से मुक्त होना स्वयं के ही आधीन है। इस प्रकार चेतन द्रव्य की स्वतंत्रता पर आए श्री ने अनेक दृष्टान्त देते हुए व अनेकानेक रूप से विचार व्यक्त करते हुए आत्मा के अविकारी स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने का आव्हान किया। कर्मों का कर्ता यह स्वयमेव है तथा कर्मों से मुक्त होगा तो स्वयमेव ही होगा।
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