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का वेदन है। परिणाम हवेदि सम्मोहो' | जब जीव के परिणाम सम्मोहित होते हैं तो उस काल में न गुण को जानता है न दोषों को। न कुछ को पहचानता है, न जाति को। न वंश का ध्यान रखता है, न कुवंश का ध्यान रखता है यानी कुल, वंश, जाति, गोत्र सभी को खो बैठता है। परन्तु क्या ऐसा होना सुनिश्चित है? ऐसा होना सुनिश्चित नहीं है। यदि सर्वथा ही इसे सुनिश्चित मान लिया जाये तो मोक्षमार्ग का विराम हो जायेगा, संयम का अभाव हो जायेगा, पुरुषार्थ समाप्त हो जायेगा, ईश्वरवादी ईश्वराधीन हो जायेगा और तुम भी कर्माधीन हो जाओगे। वेद की उदीरणा का होना, वेदकर्म का उदय में आना, ये वेद का हाथ है। परिणामों का सम्मोहित होना, ये कर्म सापेक्ष है लेकिन तदनुकूल प्रवृत्ति करना या नहीं करना ये पुरुषार्थ सापेक्ष है। 'वेदस्य उदीरणाये कर्म के उदय में कार्य करना ही पड़ेगा, ऐसी मान्यता तो घोर मिथ्यात्व की पोषक है। कर्म के उदय होने पर चेतन का उस ओर चला जाना, उसकी परतंत्रता का द्योतक है, परन्तु पुरुषार्थ करके तदनुकूल प्रवृत्ति नहीं करना, उसे संयम के द्वारा रोक लेना ये चेतन की स्वतंत्रता का द्योतक है (78)। पुण्य की प्रबलता में प्रशस्त पुरुषार्थ चलता है, पाप की प्रबलता में अप्रशस्त पुरुषार्थ प्रारम्भ हो जाता है (79)। प० पू० आ० श्री महावीरकीर्ति जी महाराज का एक दृष्टान्त देते हुए गुरुवर कहते हैं कि महाराज जी कटनी में 105 डिग्री बुखार में श्री जी के सामने कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर सामायिक कर रहे थे, उसी समय एक कालिया नाग ने मुनिराज की उँगली को पकड़ लिया, बस यही तो स्वरूप संबोधन है। एक उँगली पकड़े हैं, दूसरा देख रहा है। उँगलीवान ने उसे ज्ञेय बना लिया। तू जिसे भक्षण करना चाहता है, वह भक्ष्य भी नहीं है और तू जिसे पकड़े है, वह मैं नहीं हूँ। महाराज ने कहा 'भैया यदि वैर है तो देर क्यों? और वैर नहीं है तो अधेर क्यों? मुझे सामायिक करने दो।' नाग उँगली को छोड़कर अपने बिल में चला गया, योगी अपने बिल में चले गये । एक केंचुली को छोड़ने वाला नाग था, दूसरा राग को छोड़ने वाला नाग था, दोनों ही अपना घर बनाकर नहीं रहते। ये है चेतन द्रव्य की शक्ति और स्वतंत्रता (86)। कमठ शरीर को तो गीला कर सकता है, पर चैतन्य आत्मा को गीला नहीं कर सकता। कषायों के निमित्त पराश्रित हैं, पर कषाय करना या नहीं करना ये शाश्वत है। धर्म स्व सापेक्ष है, पर सापेक्ष नहीं । हम अपने चितवन में स्वतंत्र हैं, अपने उपादान को पवित्र या अपवित्र करने में स्वतंत्र हैं, पर 'पर' के उपादान को बदलने में स्वतंत्र नहीं हैं। जब तक पराधीन दृष्टि रहती है, तब तक संसार है और जब द्रव्य दृष्टि आती है, स्व की ओर दृष्टि जाती है, तब भो भावी भगवान् तू किसे पंजा मार रहा है, तू तो भविष्य का भगवान् है' | पंजा छूट गया, नयनों से नीर टपक गया, यह है पराधीन दृष्टि से अपने चैतन्य द्रव्य को स्वाधीन दृष्टि की ओर लगाने
-स्वरूप देशना विमर्श
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