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बहुत बड़ा ईश्वरवादी हो जायेगा । कर्म और आत्मा में व्याप्य व्यापक भाव नहीं है । जब कर्म मेरा ही कर्ता नहीं है, मैं कर्म का कर्ता नहीं हूँ तो कोई भी पर द्रव्य मेरा कर्ता नहीं हो सकता। यहाँ कर्ता से बनाने वाला लेना, कोई किसी का कुछ नहीं करता, ऐसा भाव मत लेना । कर्म जीव का उत्पादक नहीं हो सकता, जीव कर्म का उत्पादक नहीं हो सकता । कर्म और आत्मा अलग-अलग हैं और यही चेतन द्रव्य की स्वतंत्रता है। कर्म आयें तो आप उसकी ओर मुस्करकर देखें। वे साता के रूप में आयें तो भी उसकी ओर देखो और असाता के रूप में आये तो उसे भी देखो, उसे ज्ञेय तो बनाओ, कर्ता मत बनाओ (349) । कोई किसी का कर्ता जगत् में न हुआ और न होगा (351)। समझाना तो ठीक है पर सुधारने का ठेका मत लेना। हर किसी का चेतन द्रव्य स्वतंत्र है। आप निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध तो स्वीकारो लेकिन कर्तृत्व भाव मत रखो। आप पर के कर्ता हो ही नहीं सकते, कर्ता पने को त्याग दीजिए (329)
भगवान् बन्ध कराने नहीं आते । भगवान् बन्ध छुड़ाने नहीं आते। यह तो निमित्ताधीन दृष्टि है। उपादान, उपादेय पर भी तो ध्यान दो। पर उपादान तभी सफल होता है, जब निमित्त साथ में होगा । न तुम्हें कोई व्यभिचारी बना सकता है और न कोई मुनि महाराज । तेरा अन्दर का चेतन द्रव्य यदि पवित्र है तो तू निर्ग्रन्थ बनेगा और यदि कर्म का विपाक विकृत हो गया तो तू व्यभिचारी बनेगा । भगवान् तुझे भगवान् बनाने नहीं आयेंगे। निज के भाव ही तुम्हें भगवान् बनायेंगे ।, यह चेतन द्रव्य की स्वतंत्रता है । पहले भावों से भगवान् के पास जाना फिर भावों से भगवती की ओर बढ़ना और फिर भावों को भी समाप्त कर देना तो भव भी नियम से स्वतंत्र हो जायेगा। एक दिन ऐसा आयेगा जब भाव ही समाप्त हो जायेंगे और जिसके भाव समाप्त हो गये, उसका भव नियम से समाप्त हो जायेगा (288) ।
पर को दोष देना आज से समाप्त कर देना । पर निमित्त बन सकते हैं पर 'पर' दोषी नहीं होते । सुख-दुःख में पर निमित्त बन सकते हैं, दोषी नहीं । दोष किसी दूसरे का ही है और वह और कोई नहीं तू ही है। पूर्व में जो किये थे दोष सो आज उदय में आ रहे हैं, अब उनको शान्ति से सहन कर लेता तो निर्जरा हो जाती, लेकिन सहन न करने के स्थान पर दूसरे को दोष दे रहा है, जिससे नवीन कर्मों को और आमन्त्रण दे रहा है। परिणामों को सम्भाल लेता तो बच जाता ।
तीसरे श्लोक पर प्रवचन करते हुए गुरुवर कहते हैं- स्वरूप संबोधन की गहराई समझो। चेतन द्रव्य स्वतंत्रता पर आचार्य अच्छी दृष्टि देते हैं । वेदकर्म की उदीरणा होती है तो जीव सम्मोहित होते हैं। जो स्त्री पुरुषों में वेद कराये, वह तो वेद
स्वरूप देशना विमर्श
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