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स्वरूप देशना में चेतन द्रव्य की स्वतन्त्रता
__-डा० सुशील चन्द्र जैन, मैनपुरी परम पूज्य आ० भट्ट अकलंक देव विरचित स्वरूप सम्बोधन न्याय का ग्रन्थ है। कुल 25 श्लोकों में जीव को अपने स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने के लिए आचार्य श्री ने अनेक प्रकार से अनेकान्तिक दृष्टि देते हुए सम्बोधन दिया है। इन्दौर में 22 मई से 28 जून, 2010 तक हुई वाचना में प० पू० आ० श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने प्रवचन दिये, जिसके आधार पर स्वरूप देशना' नाम का 400 पृष्ठीय ग्रन्थ प्रकाशित हुआ । प्रवचनों से स्पष्ट है कि इस वाचना के प्रमुख श्रोता ब्र० पं० श्री रतनलाल जी रहे, जिनके शब्दों में इस ग्रन्थ में द्वादशांग का सार है, चारों अनुयोगों के प्रवेश की कुंजी है। मंगलाचरण करते हुए आचार्य भगवन् कहते हैं
मुक्तामुक्तैकरूपौ यः, कर्मभिः संविदादिना।
अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्ति नमामि तम्॥ जो कर्म से मुक्त तथा सम्यग्ज्ञान आदि से अमुक्त होता हुआ एक रूप है, उस अक्षय, अविनाशी ज्ञानमूर्ति परमात्मा को मैं । नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार आ० श्री मंगलाचरण में आत्मा मुक्त भी है तथा अमुक्त भी है, कह रहे हैं। सामान्य जीव को लगता है कि यह कैसे सम्भव है? तो आ० उत्तर देते हैं कि कर्मों से तो मुक्त है और सम्यग्ज्ञान आदि से अमुक्त है।
आगे के श्लोकों में आ० अकलंक स्वामी ने आत्मा को किसी एकरूप न मानकर अनेकान्त की सिद्धि करते हुए अनेक रूप बताया है। आत्मा कारण भी है, कार्य भी है, ग्राह्य भी है, अग्राह्य भी है, अनादि अनन्त भी है तथा उत्पाद व्यय धौव्य युक्त भी है, एकत्वभूत है, नानत्वभूत है, वाच्य है, अवाच्य है, वक्तव्य है।, अवक्तव्य है।
सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं क्रमाद्धेतुफलावहः। यो ग्राह्योऽग्राहानाद्यन्तः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः||श्लोक 2 पृ० 22 ग्रंथ छोटा अवश्य है पर इसमें बहुत सार भरा है तथा कष्ट साध्य भी है। ग्रंथ को समझने के लिए आचार्यों की दृष्टि को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।
प० पू० आ० श्री विशुद्ध सागर जी ने इस पर बड़ी ही सरल भाषा में प्रवचन (70
-स्वरूप देशना विमर्श
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