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करके ग्रंथ के हार्द को जनमानस तक पहुँचाने की सफल कोशिश की है। सभी श्लोकों को देखने के बाद यह परिलक्षित होता है कि भगवन् अकलंक देव ने किसी भी श्लोक में सीधा-सीधा यह प्रश्न नहीं उठाया कि चेतन द्रव्य स्वतंत्र है या नहीं पर जब स्वरूप देशना में आ० विशुद्ध सागर जी के प्रवचनों को आत्मसात् करते हैं तो चेतन द्रव्य की स्वतंत्रता पर अनेक दृष्टियों से विवेचन देखने को मिलता है तथा उस पर समीचीन रूप से पूर्ण विवेचन करते हुये भगवन् अकलंक की शैली में यही कहा जा सकता है कि चेतन द्रव्य स्वतंत्र भी है और स्वतंत्र नहीं भी है।
वस्तु की विवक्षा, वस्तु की व्याख्या और वस्तु स्वतंत्रता तीन चीजें हैं, जिन्हें इनका भान नहीं है, वही रो रहा है। अगर इन पर ध्यान देते तो नयनों के नीर उसी क्षण समाप्त हो जाते । राग द्वेष के ही कर्ता आप हो लेकिन वस्तु के कर्ता नहीं हो । छः द्रव्य त्रैकालिक हैं। जीव द्रव्य का कोई जनक आज तक हुआ ही नहीं है, पुद्गल द्रव्य का भी कोई जनक नहीं हुआ। इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन द्रव्यों का भी कोई जनक नहीं है और यही हर द्रव्य की स्वतंत्रता है। हे जीव! तू रागादिक भावों का जनक तो है, तू अपने शुभाशुभ भावों, परिणामों का जनक तो है परन्तु जिसमें शुभाशुभ परिणाम हो रहे हैं, उस परिणामी, चेतन द्रव्य आत्मा का जनक तू बिल्कुल नहीं है। छ: द्रव्यों का परिणमन स्वतंत्र है, छहों द्रव्यों की परिणति भी स्वतंत्र है। कोई किसी द्रव्य का कर्ता न हुआ न होगा । अतः चेतन द्रव्य भी अन्य द्रव्यों की भाँति स्वतंत्र है। (पृ० 9-10)
जैनेन्द्र व्याकरण कहता है स्वतंत्रतः कर्ता'- कर्ता स्वतंत्र होता है। आप क्यों परतंत्र बनते हो? क्यों दूसरे को परतंत्र बनाते हो? (पृ० 43)। “पराधीन सपनेहु सुख नाहीं । आज्ञा देने वाला बन जाऊँ, ऐसा भी भाव मत लाना और मैं किसी की आज्ञा का पालन करूँ,यह भाव भी मत लाना | सहज जीवन जियो।
स्फटिक मणी के सामने जैसा पुष्प रख दो, मणि भी वैसी दिखना प्रारम्भ कर देती है लेकिन मणि पुष्परूप नहीं होती। ऐसी ही आत्मा है। आज तक मेरे आत्मद्रव्य ने परद्रव्य को स्वीकार नहीं किया । मैं समझ रहा हूँ कि आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से बद्ध है। इतना होने के उपरान्त भी जैसे स्फटिक के सामने पुष्प आया अवश्य है लेकिन स्फटिक ने पुष्प को किंचित् भी अपने में स्वीकार नहीं किया है, झलकता है लेकिन स्पर्शित नहीं है। ऐसे ही आत्मा ने भी कभी भी परद्रव्य को स्पर्श नहीं किया है, इसलिए अग्राह्य है ये आत्मा । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि द्रव्यों से इसे खींचा नहीं जा सकता इसलिए अग्राह्य है। परन्तु निज स्वरूप में लीन होता योगी इसे आत्मानुभूति से पकड़ता है, अतएव ग्राह्य है आत्मा । (पृ० 59) स्वरूप देशना विमर्श
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