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बचा वही पायेगा |हम शरीर के उत्पाद, व्यय को देख रहे हैं। मेरे तो वर्तमान पर्याय में दो उत्पाद-व्यय चल रहे हैं। असमान जाति में तो ये शरीर में चल रहे हैं, समान जाति अन्तरङ्ग में मेरे निज चैतन्य-द्रव्य, गुण-पर्याय में भी परिणमन चल रहा है और शरीर में भी परिणमन चल रहा है। वह विविध प्रकार के अनन्त गुण पर्यायों का अखण्ड पिण्ड है। परन्तु धौव्य रूप से ज्ञान उसके तादात्म्यपने से बना रहता है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है। द्रव्य दृष्टि से आत्मा द्रव्य है। प्रदेश भेद की दृष्टि से वह असंख्यात प्रदेशी है। पर्याय की दृष्टि से शुद्धाशुद्ध पर्यायें दृष्टिगोचर होती हैं । गुणों या पर्यायों में जिसकी विवक्षा होगी वह दिखाई देगी। गुण सहभावी होने से आत्मा में वे एक साथ अनन्त संख्या में अक्रम रूप से पाये जाते हैं। पर्याय क्रमवर्ती हैं, इसलिए एक गुण की एक पर्याय एक बार में होगी, दूसरी पर्याय दूसरे समय में होगी, परन्तु अनन्त गुणों की अनन्त पर्यायें एक साथ ही होगी। इस तरह अनादि पारिणामिक स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा की ध्रुवता है तथा स्वजाति के ज्ञान, चैतन्य आदि गुणों को न छोड़ते हुए पर्यान्तर की उत्पत्ति, उत्पाद है तथा पूर्व पर्याय का विनाश, व्यय है।" शुद्धात्मा में भी उत्पादित्रय घटित किये गये हैं। परमात्मा का सिद्धपर्याय से उत्पाद है, संसार पर्याय रूप से विनाश है और शुद्धात्म द्रव्यरूप से ध्रौव्य है। परमात्मा का नवीन केवल ज्ञानादि पर्यायरूप से उत्पाद पूर्व केवल ज्ञानादि पर्यायरूप से विनाश व शुद्धात्म द्रव्यरूप से धौव्य रहता है। परमात्म द्रव्य के धौव्य रहते हुए भी समान स्वाभाविक पर्यायों के रूप में उत्पादव्यय होता रहता है।
चेतनाचेतन आत्मा ___आचार्य अकलंक देव ने प्रमेयत्व आदि धर्मों से आत्मा को अचेतन रूप तथा ज्ञान दर्शन गुण से चेतन रूप कहा है। " आत्मा को चेतनाचेतन नहीं मानने पर 'आत्मा में अनन्त धर्म हैं', इस स्व सिद्धान्त का व्याघात होता है। आत्मा में चेतन गुण के अतिरिक्त अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, नित्यत्व, अगुरुलघुत्व आदि ऐसे गुण भी विद्यमान हैं, जो अचेतन पदार्थों में भी पाये जाते हैं। आचार्य विमलदास ने उपयोग से आत्मा को जीव ओर प्रमेयत्वादि से अजीव कहा है। 24 अन्य प्रकार से भी आत्मा के चेतनाचेतन को सिद्ध किया गया है- पौद्गलिक कर्मों के द्वारा जितने अंशों में चेतन गुण का घात हो रहा है, उतने अंशों में अचेतन भाव है।
जीव के द्रव्य कर्मों के सम्बन्ध से होने वाला स्वभाव असद्भूत व्यवहार से अचेतन स्वभाव है। इस तरह आत्मा चेतनाचेतन है।
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-स्वरूप देशना विमर्श
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