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आत्मा कथंचित् भिन्नाभिन्न
भूत, भविष्यत काल के पदार्थों को जानने रूप पर्यायों वाला ज्ञान आत्मा के रूप में प्रसिद्ध है। वह ज्ञान गुण से न सर्वथा भिन्न है, न सर्वथा अभिन्न अपितु कथंचित् भिन्नाभिन्न है।" आत्मा के अनन्त गुणों में ज्ञान भी उसका गुण है। वह ज्ञान गुण अपने आधारभूत आत्मा से कथंचित् भिन्न है। अतति सततं गच्छति इति आत्मा' अर्थात् जो निरन्तर ज्ञान, दर्शन रूप परिणत होता रहता है, वह आत्मा है एवं 'जायतेऽनेनेति ज्ञानम् जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। आत्म और ज्ञान में आधार आधेय का सम्बन्ध है। आत्मा द्रव्य है और ज्ञान गुण है। गुण में और कोई गुण नहीं होता। इसलिए ज्ञान में भी और कोई गुण नहीं । आत्मा द्रव्य है और द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं। इस दृष्टि से आत्मा और ज्ञान भिन्न-भिन्न है। परन्तु आत्मा और ज्ञान के प्रदेश भेद न होने के कारण दोनों में अभिन्नत्व भी है। आत्मा स्वदेह प्रमाण
आत्मा स्वदेह प्रमाण है। वह आत्मा ज्ञान मात्र भी नहीं, इस कारण यह आत्मा सर्वगत और विश्वव्यापी नहीं है।" आत्मा के लोकाकाश के बराबर प्रदेश होने पर भी कार्माण शरीर के कारण ग्रहण किये गये शरीर में ही स्थित रहता है। दीपक की तरह आत्मा का स्वभाव संहार और विसर्प रूप है। ज्ञान आत्मा के बिना नहीं पाया जाता, इसलिए यह कहा जाता है कि ज्ञान आत्मा ही है। परन्तु आत्मा ज्ञान ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि आत्मा अनन्तधर्मात्मक है। ज्ञान गुण है। आत्मा में ज्ञान गुण के साथ और भी गुण पाये जाते हैं। यदि एकान्त से यह माना जाता है कि ज्ञान आत्मा है तब ज्ञान गुण के आत्मा द्रव्य हो जाने से ज्ञान का अभाव हो जायेगा। इस स्थिति में आत्मा के अचेतनता प्राप्त होती है अथवा विशेष गुण का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा । यदि सर्वथा आत्मा ज्ञान है, यह माना जाता है तब निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा, साथ ही अविनाभावी सम्बन्ध वाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा। " ज्ञान की व्यापकता होने से ज्ञानमय आत्मा को व्यापक कहा गया है। निश्चय से आत्मा बाहर किसी भी ज्ञेय में नहीं पहुँचकर अपने ही प्रदेशों में ज्ञान स्वभाव से सर्वविषयक ज्ञान करता है। वास्तव में सभी ज्ञेय पदार्थ अपने-अपने प्रदेशों में ही रहते हैं। सर्व ज्ञेय जान लेने के कारण भगवान् को व्यवहार नय से सर्वगत कहा जाता है।
उपर्युक्त स्वरूप सम्बोधन कृति के अनेकान्तमयी शैली में प्रतिपादित कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। इसी ग्रन्थ में इसी तरह आत्मा को एकानेकात्मक, स्वरूप देशना विमर्श
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