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व्यवस्थित है।" जो व्यक्ति अनेकान्त दृष्टि से पदार्थ को देखते हैं, वे ही जिननीति में निपुण बनते हैं और वे ही वास्तविक ज्ञानी कहलाते हैं। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने इस प्रसङ्ग में विभिन्न उदाहरणों पूर्वक परमात्मा के मुक्तामुक्त स्वरूप को स्पष्ट कर आचार्य अकलंक देव के जीवनवृत्त पर भी गम्भीरता से प्रकाश डाला है, जिससे श्रोताओं को उनके जिनशासन के प्रति त्याग और उनके योगदान का सहज ही बोध हो जाता है। ग्राह्याग्राह्य आत्मा
उपयोग स्वरूपी आत्मा क्रम से कारण और उसके फल-कर्म को धारण करने वाला ग्राह्य और अग्राह्य है। इसको स्पष्ट करते हुए स्वरूप-देशना' में लिखा है कि 'बिना कारण समयसार के कार्य समयसार नहीं होता। सम्यक्त्व पर्याय कारण समयसार है, चारित्र पर्याय कार्य समयसार है। चारित्र समयसार कारण पर्याय है तो अशरीरी सिद्ध पर्याय कार्य समयसार है। जो मार्ग है, वह मोक्ष का उपाय है और निर्वाण उसका फल है। जिनवाणी में सर्वत्र कारण कार्य व्यवस्था है। " ग्राह्य -अग्राह्य आत्मा अनादि अनन्त है, इसको स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि शुद्ध आत्मा ने कभी भी परद्रव्य को स्पर्श नहीं किया, इसलिए वह अग्राह्य है तथा निजस्वरूप में लीनता ग्राह्य है।" आचार्यश्री अमृतचन्द स्वामी ने लिखा है कि चैतन्य स्वरूप भाव ही ग्राह्य है, शेष परभाव अग्राह्य हैं।'' मूर्तिक अमूर्तिक आत्मा"
आत्मा कर्मबन्ध होने के कारण कथञ्चित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव न छोड़ने के कारण अमूर्तिक है। जिस प्रकार मदिरा को पीकर मनुष्य मूर्छित हो जाता है, उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है उसी तरह कर्मोदय से आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं। 17 अन्यत्र ऐसा भी कहा गया है कि आत्मा स्वभाव से अमूर्त है, पर अनादिकालीन कर्म-सम्बन्ध के कारण कथञ्चित् मूर्तिकपने को धारण किये हुए है। आत्मा, उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक
आत्मा, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है, क्योंकि वह सत् है। सत्, उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक प्रतिपक्षी धर्मों से युक्त अनेक रूप और पर्यायों से युक्त बताया गया है। द्रव्य का स्वरूप भी यही है, जो गुण पर्याय से युक्त होता है। अनेक उदाहरण देकर आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी कहते हैं कि 'विश्वास रखना, कोई स्वरूप देशना विमर्श
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