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असत् आदि । ये गौण और मुख्य की विवक्षा को लिए हुए अविरोध रूप से रहते हैं। कारक और ज्ञापक अंगों की तरह धर्म और धर्मी का अविनाभाव सम्बन्ध ही एक
दूसरे की अपेक्षा से सिद्ध होता है, स्वरूप नहीं ।' आचार्य अमृतचन्द ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि जो वस्तु तत्स्वरूप है, वही अतत्स्वरूप भी है। जो वस्तु एक है, वही अनेक भी है। जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है, जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त है।' इस अनन्तधर्मात्मक वस्तु के कथन करने की पद्धति या साधन का नाम स्याद्वाद है। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है
स्याद्वादः सर्वथैकान्त्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः ।
सप्तभङ्गानयापेक्षो हेयादेय विशेषकः ॥
अर्थात् सर्वथा एकान्त का त्याग करके कथंचित् विधान करने का नाम स्याद्वाद है। यह सात भङ्गों और नयों की अपेक्षा रखता है तथा हेय और उपादेय भेद का व्यवस्थापक है ।
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आचार्य अकलंक ने अनेकान्तात्मक अर्थकथन को स्याद्वाद कहा है। #
‘स्वरूप-सम्बोधन ́ कृति में परस्पर विरूद्ध प्रतीत होने वाले कतिपय उदाहरण यहाँ दृष्टव्य हैं, जिनका अनेकान्त दृष्टि से समाधान प्रस्तुत किया गया है
मुक्तामुक्त परमात्मा
परमात्मा को अविनाशी, ज्ञानमूर्ति की तरह उन्हें मुक्तामुक्त भी कहा गया है। परन्तु यहाँ प्रश्न उत्थित होता है कि परमात्मा तो मुक्त माना गया है, पर उसे मुक्त को अमुक्त क्यों कहा गया है ? अनेकान्त वाद की यही विशेषता है कि परस्पर विरूद्ध दिखने वाले दो धर्म एक जगह रह सकते हैं। जो कर्मों से मुक्त तथा सम्यग्ज्ञान आदि से अमुक्त हैं, वह मुक्तामुक्त परमात्मा है।' आचार्य विशुद्ध सागर जी ने इसकी देशना में कहा है कि 'जैनकुल में जन्म लेकर जिसे स्याद्वाद और अनेकान्त की परिभाषा का बोध नहीं, वह जैनत्व की सिद्धि नहीं कर सकता । आचार्य श्री ऐसा कहकर के आपको 'ज्ञानी' बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। भविष्य में आप 'ज्ञानी' बन जाये, एतदर्थ आपको अभी से 'ज्ञानी' शब्द से सम्बोधित भी कर रहे हैं क्योंकि आचार्य अमृतचन्द जी के शब्दों में 'जैन शासन' अनेकान्त स्वरूप
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• स्वरूप देशना विमर्श
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