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की कसौटी पर कसकर आप्त की वाणी को युक्तिशास्त्र से अविरोध सिद्ध किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द कृत 'समयसार' के चिन्तन को जैसे- उसकी 'आत्मख्याति’ टीका में आचार्य अमृतचन्द ने युक्तियों का आश्रय लेकर अध्यात्म विषयक विषय वस्तु को स्याद्वाद पद्धति से अनेकान्तान्तमक सिद्ध कर स्वात्मोपलब्धि के लिए मुमुक्षुओं का मार्ग प्रशस्त किया है तथैव आचार्य अकलंक देव ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में आगमिक-आध्यात्मिक विषय को प्रतिपाद्य बनाकर उसको आचार्य समन्तभद्र की तर्कपद्धति के आधार पर आत्मतत्त्व की यथार्थता सिद्ध की है तथा स्वानुभव को ही मोक्ष के लिए उपयोगी बताया है। __एक वस्तु में परस्पर दिखने वाले धर्मों की व्यवस्था के सम्बन्ध में अनेकान्त और स्याद्वाद को समझना आवश्यक है। वस्तुतः अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सम्यक् स्वरूप को प्रकट करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद है जो वस्तु को अनन्तधर्मात्मक नहीं मानते के एकान्तवादी माने जाते हैं। जैनाचार्यों ने वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए एकान्तवादों की समीक्षा पूर्वक अपने अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर स्वपक्ष को मण्डित किया है। आचार्य समन्तभद्र ने अनेक एकान्तवादों को भावैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यत्वैकान्त आदि चालीस एकान्तवादों में समाहार कर और उनका समीक्षण कर अनेकान्त मूलक स्याद्वादी-व्यवस्था स्थापित की है। शुद्धात्मतत्त्व के सम्बन्ध में प्रायः जैनेतर दार्शनिकों द्वारा यह आक्षेप लगाया जाता है कि आत्मा के शुद्ध होने की स्थिति में वह अनन्तधर्मात्मक कैसे रह सकती है, उसमें परस्पर विरूद्ध धर्म एक साथ कैसे रह सकते हैं आदि । 'स्वरूप-सम्बोधन' कृति की यह विशेषता है कि इन सभी प्रश्नों का समाधान उसमें दिया गया है। अपने प्रवचनों के द्वारा इसको सयुक्तिक, सुगम और जनोपयोगी बनाया है, अपनी देशनाओं में आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने । 'स्वरूपदेशना के आलोक में स्वरूप-सम्बोधन' के वैशिष्ट्य का मूल्यांकन करने के लिए अनेकान्त के साथ स्याद्वाद को भी समझना आवश्यक है।
अनेकान्त अनेक' और 'अन्त’ दो शब्दों के मेल से निष्पन्न है। अनेक का अर्थ एक से भिन्न तथा अन्त का अर्थ 'धर्म', अंश या गुण होता है। आचार्य समन्तभद्र ने 'अन्त’ का अर्थ धर्म में घटित किया है। क्योंकि इसमें ही विवक्षा और अविवक्षा का व्यवहार होता है, अनन्त धर्मों में नहीं। अन्य दर्शनों में भी पदार्थों में अनेक गुण माने गये हैं। परन्तु जैन दर्शन में जब अनेक का सम्बन्ध गुण से किया जायेगा तब उसका अर्थ अनन्त गुण होगा और जब अनेक की धर्म के साथ विवक्षा होगी तब उसका अर्थ परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मों से होगा । जैसे भेद, अभेद, सत्,
स्वरूप देशना विमर्श
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