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________________ मुक्तामुक्त है। इसी तरह आत्म तत्त्व को कारिका दो से नौ तक क्रमशः उपयोगमयी, ग्राह्याग्राह्य, अनाद्यनन्त, उत्पादव्ययधौव्यात्मक, चेतनाचेतन, भिन्नाभिन्न, स्वदेहप्रमाण सर्वगत, एकानेक, वक्तावक्तव्य, विधिनिषेध, मूर्तिकामूर्तिक आदि अनेक धर्मात्मक सिद्ध किया गया है। नौंवी और दशवीं कारिकाओं में आत्मतत्त्व में कर्मबन्ध और मोक्षफल की तथा कर्तृव्य-भोक्तृत्त्व की व्यवस्था बताई गयी है। ग्यारह से पन्द्रह कारिकाओं में स्वात्मोपलब्धि के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के रूप में अन्तरंग उपाय तथा देशकालादि और बहिरंग तप के रूप में बाह्य उपायों की चर्चा की गयी है। कारिका सोलह में निज आत्म भावना के उपाय एवं कारिका सत्रह-अट्ठारह में कषाय, राग-द्वेष को आत्मचिन्तन के दोषों के रूप में विवेचित किया गया है। उन्नीस और बीसवीं कारिकाओं में हेय और उपादेय के अन्तर को समझकर हेय को त्यागने और उपादेय को ग्रहण करने की प्रेरणा दी गयी है तत्पश्चात् वस्तु स्वभाव स्पष्ट हो जाने पर और उपेक्षाबुद्धि की वृद्धि होने पर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। किस स्थिति में मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, उसका निदर्शन करते हुए इक्कीस और बाइसवीं कारिकाओं में लिखा है कि अत्यधिक तृष्णा और आकांक्षा मोक्ष के प्रतिबन्धक हैं। वस्तुतः वही मोक्ष का अधिकारी होता है, जिसको मोक्ष तक की भी अभिलाषा नहीं होती। आत्मनिष्ठ स्वाधीन होकर, स्वपर विवेक को जागृत कर, इस भेद को भी दूर कर आकुलता रहित स्वानुभव से जानने योग्य स्व स्वरूप में स्थित होने की प्रेरणा तेईस और चौबीसवीं कारिकाओं में दी गयी है। षट्कारक रूप से स्व-आत्मा का स्व-आत्मा से ध्यान अविनाशी, आनन्दामृत पद को प्राप्त कराने में समर्थ है,यह पच्चीसवीं कारिका में बताया गया है। एक कारिका अन्त मंगल के रूप में फल प्राप्ति का निदर्शन करती है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि इस ग्रंथ के आख्यान और श्रवण से परमात्म-सम्पदा की प्राप्ति होती है। स्वरूप देशना में इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ सुना है, इसकी इतिश्री श्रवण के दिन के लिए नहीं है, बल्कि अन्तिम समय के लिए है। यह वही वाणी है, जो महावीर स्वामी की विपुलाचल पर खिरी थी। आत्मा में ज्ञान, दर्शन है, वैसे ही आत्मा में पंचपरमेष्ठी की भक्ति होना चाहिए, कर्तव्य बिल्कुल नहीं क्योंकि धर्म होता है, कर्तव्य करना पड़ता है। अष्टपाहुड के उदाहरण से पुष्ट करते हुए आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी कहते हैं कि वर्तमान काल में रत्नत्रय से शुद्धता प्राप्त कर मनुष्य आत्मध्यान पूर्वक इन्द्रपद तथा लौकान्तिक देवों के पद को प्राप्त करते हैं और वहाँ से च्युत होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं।' __ स्वरूप-सम्बोधन कृति का महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह है कि अध्यात्म को न्याय (56 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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