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आप श्रमण संस्कृति के परिचायक, निर्लेप, निर्विकार, दिगम्बर, मुद्राधारी, श्रमण-साधना के शुभ्राकाश में अध्यात्म के ध्रुव तारे पंचाचार-परायण, शुद्धात्मध्यानी, शुद्धोपयोगी-श्रमण, स्वात्म-साधना के सजग प्रहरी, आलौकिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी, आगमोक्त, श्रमणचर्या-पालक, समयसार के मूर्तरूप, निष्प्रह, श्रमण-भावनाओं से ओत-प्रोत, तीव्र आध्यात्मिक अभिरूचियों, वीतराग, परिणतियों एवं वात्सल्यमयी प्रवृत्तियों से पूरित प्रत्यग्-आत्मदर्शी चलते फिरते चेतन्य तीर्थ 18-12-1971 को राजेन्द्र नाम से मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले के ग्रामरूर में पिता श्री रामनारायण (श्रमण मुनि श्री विश्वजीत सागर जी) मातु श्रीमति रत्तीबाई की कुक्षि- कक्ष से उद्भूत 21-11-1991 को श्रमणाचार्य 108 श्री विराग सागर जी महाराज से मुनि दीक्षाधारी, 31.03.2007 (महावीर जयन्ती) औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में आचार्य पद से अलंकृत है। उत्कृष्ट क्षयोपशम
अध्यात्मयोगी दिगम्बराचार्य 108 श्री विशुद्ध सागर जी महाराज की धारणा (क्षयोपशम) शक्ति इतनी प्रबल है कि कहीं का भी विषय पूछो उनके कंठ में ही अवस्थित है। ___ व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, अध्यात्म, आगम, नय-न्याय, स्वदर्शन या हो पर-दर्शन, गीता हो या रामायण विभिन्न ग्रंथों के आचार्य महाराज को लगभग 3000 सूत्र तथा 4000 संस्कृत-प्राकृत की गाथा/श्लोक कंठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत की अनेक सूक्तियाँ, नीतिवाक्य, मोखार्ग याद हैं। इनकी गणना करना सम्भव नहीं है। आपके दैनिक प्रवचन/उपदेशों में अनेकों नीतिवाक्य, स्वर्ण सूत्र के रूप में निर्झरित होते हैं। आचार्य भगवान ने अपने जीवन काल में गुरुमुख से एवं स्व-पुरूषार्थ से स्व-परमत सम्बन्धी लगभग युगल-सहस्त्र ग्रंथों का अद्योपात पारायण किया है।
आपका आध्यत्मिक-चिंतन इतना गहन एवं विपुल है कि- पूर्वाचार्यों की एक-एक कारिका पर आपका विस्तृत लगभग 20 से 30 पृष्ठों तक व्याख्यान है, जो आपको सरस्वती नंदन प्रतिपादित करता है।
दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति ही नहीं वरण वर्तमान विश्व में नामचीन अध्यात्म योगियों की श्रृंखला में परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज की कीर्ति पताका आज निर्विवाद/निरन्तर सकल-विश्व में फहरा रही है। मात्र 18 वर्ष की अल्पायु में गृह त्याग कर निरंतर आध्यात्मिक अभिरूचि प्रधान कर अध्ययन-अध्यापन में अपने जीवन को समर्पित किया है। (44
-स्वरूप देशना विमर्श
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