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जिसके नीचे 21 नवम्बर, 1991 को मुनि विशुद्ध सागर जी का जन्म हुआ था। दस वर्ष की कठोर साधना और स्वाध्याय ने, उनके चिन्तन धरातल को इतना ऊँचा उठा दिया कि उसमें जिनवाणी के प्रसून खिलने लगे। ___ सन् 2001 में 'शुद्धात्म तरंगिणी' से प्रारंभ उन पावन प्रसूनों की पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के वैशिष्ट्य को विस्तृत करते हैं। पूज्य आचार्य महाराज की वाणी में जादू है वे लिखते नहीं बोलते हैं और प्रवचन के रूप में उनका वह बोलना ही ग्रन्थ बन जाता है।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य महाराज अपनी वाणी का उपयोग, मठ–मन्दिर या संस्थाओं के निर्माण में नहीं करते। उनकी वाणी का उपयोग तो जिनवाणी की सेवा में या भव्य जीवों को आत्मकल्याण की ओर प्रेरित करने में ही होता है। आचार्य महाराज की प्रज्ञा को प्रणाम करते हुए मैं कामना करता हूँ कि उनका चिन्तन नित ऐसे नये प्रसूनों को पुष्पित करता रहे।
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-स्वरूपदेशना विमर्श
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