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उपाध्याय ज्ञानसागरजी के सानिध्य में एक राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी शाहपुर में जैन न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान' नाम से सम्पन्न हुयी थी जिसमें बीस विद्वानों ने, अपने शोध पत्र पढ़े थे, उनका प्रकाशन भी हुआ था, उसमें भी इस ग्रन्थ का उल्लेख नहीं हुआ
मदनगंज-किशनगढ़ निवासी पंडित महेन्द्र कुमार जी पाटनी सन् 1975 में, आचार्यकल्प श्रुतसागरजी से दीक्षित होकर मुनि समतासागर बने थे, उनकी आकस्मिक समाधि 1978 में हो गयी थी तब उनके विद्वान् सुपुत्र प्रोफेसर डा० चेतन प्रकाश पाटनीने 'भट्ट अकलंक विरचित स्वरूपसम्बोधनपंचविंशतिः' नाम से एक लघु पुस्तिका उनकी स्मृति में प्रकाशित की थी, जिसमें पं० अजित कुमार शास्त्री कृत हिन्दी टीका भी समाहित थी। ___ इसी लघु पुस्तिका पर से विशुद्धमती माताजी (जो गृहस्थावस्था में मेरी बहिन थी) ने मुझे स्वरूप सम्बोधन का अध्ययन कराया था। माताजी को इस ग्रन्थ के सभी पच्चीस श्लोक कंठस्थ थे, वे इसको सल्लेखनाकाल में बहुत सहायक मानती थीं और प्रायः उसका पाठ करती रहती थीं। अपनी सल्लेखना के अंतिम वर्ष सन् 2000 में उन्होंने स्वरूप सम्बोधन पर साठ प्रश्नोत्तर लिखे थे, जो मूल श्लोक, उनकी दो संस्कृत टीकाओं, पंडित अजित कुमारजी की हिन्दी टीका, और माताजी की प्रश्नोत्तर टीका सहित, जनवारी 2009 में पूज्य आचार्य वर्द्धमान सागर जी की प्रेरणा से प्रकाशित हुई है। ___ मार्च 2008 में पूज्य आचार्य विशुद्ध सागर जी का शुभागमन सतना हुआ तब मुझे उनके मुखारविन्द से स्वरूप सम्बोधन का हार्द, प्रवचनों के माध्यम से सुनने का सौभाग्य मिला, फिर जबलपुर में भी कुछ अवसर मिला। उन मार्मिक प्रवचनों से मुझे अपने आपसे संवाद करने की शिक्षा मिली । करूणावंत आचार्य महाराज ने स्वरूप सम्बोधन पर अपने प्रवचनों की पाण्डुलिपि प्रकाशनार्थ सतना समाज को प्रदान कर दी।
ग्रन्थ प्रकाशित हुआ वरिष्ठ विद्वान् पं० वृषभप्रसाद जी ने सोलह पृष्ठ का समीक्षित सम्पादकीय लिखकर और वयोवृद्ध गणितज्ञ विद्वान प्रो० एल.सी.जैन ने सोलह पृष्ठीय भूमिका लिखकर ग्रन्थ की गरिमा में श्रीवृद्धि की। इस प्रकार अनुपम ग्रन्थ ‘स्वरूपसम्बोधन परिशीलन' मुमुक्षुओं के लिए वरदान स्वरूप उपलब्ध हो गया। - पूज्य आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी की प्रज्ञा से प्रारंभ से ही जुड़ने का सौभाग्य मुझे मिलता रहा है। मेरे नगर से मात्र पचास किलोमीटर दूर है, वह पावन वृक्ष,
स्वरूप देशना विमर्श
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