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________________ आचार्य अकलंक देव का व्यक्तित्व एवं कृतित्व -निर्मल जैन, सतना आचार्य अकलंकदेव सातवीं आठवीं शताब्दी में हुए सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं तार्किक विद्वान् थे। अकलंक आपका नाम था और भट्ट आपकी पदवी थी। जैनों के दोनों सम्प्रदायों, दिगम्बर-श्वेताम्बरों में सर्वमान्य होने के कारण आपके नाम में देव भी लगने लगा । इस तरह आप भट्टाकलंकदेव नाम से प्रसिद्ध हुए। आप जैन दर्शन एवं न्यायशास्त्र के पुरोधा माने जाते हैं। जैन दर्शन के साथ ही आप बौद्ध दर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शनों के निष्णात विद्वान थे। उन्होंने जैनधर्म-दर्शन के माध्यम से शास्त्रार्थ करके, बौद्धों और एकान्तवादियों पर विजय प्राप्त की थी। आचार्य अकलंकदेव ने अपने गंथों में, कहीं भी अपने गृहस्थ जीवन के परिचय का संकेत नहीं दिया । परवर्ती आचार्यों ने उनके लेखन कार्य की प्रशंसा में बहुत लिखा, परन्तु उनके ग्रन्थों में भी अकलंक देव के परिचय के सूत्र प्राप्त नहीं होते। अतः उनके जीवनवृत्त पर विभिन्नतायें पायी जाती हैं। यहाँ तक कि उनके समय और पिता के नाम पर भी, विद्वान् एकमत नहीं हो सके हैं। एक कथाकोश में उन्हें मान्यखेट के राज्य मंत्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताया गया है, तो दूसरी कथा में कांची के जिनदास ब्राह्मण का पुत्र माना गया है। तत्वार्थवार्तिक की प्रशस्ति, उन्हें राजा लघुहव्व का पुत्र घोषित करती है। दोनों भाई अकलंक और निकलंक के नाम में कहीं कोई मतभेद नहीं है। कथायें भी थोड़े बहुत अंतर से एक जैसी ही है। जिनका अर्थ है कि दोनों भाई बाल्यावस्था से ही कुशाग्रबुद्धि थे। वे बौद्ध दार्शनिकों द्वारा जैनधर्म और उसके स्याद्वाद आदि सिद्धान्तों पर किये जा रहे प्रहारो से व्यथित थे। बौद्ध धर्म उस समय उत्कर्ष पर था, अनेक राजा बौद्धधर्मानुयाई थे, उनके आश्रय में शास्त्रार्थ होतेथे। जिनमें छल-बल का उपयोग होता था। जैन विद्वानों को पराजित होते देखकर उन्हें आनन्द आता था। .... प्रभाचन्द कथाकोश के अनुसार, एक बार अकलंक और निकलंक अपने माता-पिता के साथ अष्टान्हिका पर्व में मुनिराज के दर्शनार्थ गये, वहाँ धर्मोपदेश के बाद माता-पिता ने आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और बेटों को भी व्रत दिलाया। दोनों भाई जब वयस्क हुए, तब पिता ने उनका विवाह करना चाहा तब बेटों ने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का स्मरण दिलाकर कहा, कि उस प्रतिज्ञा के बाद विवाह का तो प्रश्न ही नहीं है। पिता ने बहुत समझाया कि वह व्रत तो आठ दिन के लिए था, स्वरूपं देशना विमर्श (37) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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