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अतः अब विवाह में कोई बाधा नहीं है, परन्तु दोनों भाईयों ने कहा कि व्रत लेते समय, समय-सीमा की कोई बात नहीं थी, अतः हम विवाह नहीं करेगें। उनकी हठ के सामने पिता भी विवश हो गये।
अब अकलंक निकलंक गृहस्थी की समस्याओं से बचकर, ब्रह्मचर्य व्रत के साथ एकाग्रता से विद्याध्ययन करने लगे, वे समझ गये थे कि बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ द्वारा पराजित करके ही, जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचार किया जा सकता है। उसके लिए बौद्धदर्शन का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक था। उस समय शिक्षा के प्रायः सभी केन्द्र बौद्धाश्रित थे और उनमें जैनों का प्रवेश पूर्णतः वर्जित था। दोनों भाईयों ने समय की आवश्यकता को समझकर अपने जैन होने की पहिचान छिपाकर कांचीपुर के महाबोधि गुरूकुल में बौद्ध विद्यार्थियों के रूप में विद्याध्ययन प्रारम्भ किया।
___ एक दिन सप्तभंगी न्याय का पाठ अशुद्ध होने के कारण गुरुजी पढ़ा नहीं पा रहे थे, अकलंक ने गुरु की अनुपस्थिति में पाठ शुद्ध कर दिया । गुरुजी समझ गये कि विद्यार्थियों में कोई जैन बालक है। उन्होनें अनेक प्रकार परीक्षा करके अकलंक निकलंक को पकड़ लिया, कारागृह में बन्द कर दिया। दोनों भाईयों की लगन तो, बौद्धों को पराजित करने में लगी थी, अतः वे किसी प्रकार कारागृह से निकल भागने में सफल हो गये।
भागने का पता चलते ही, उन्हें पकड़ने के लिए घुड़सवार दौड़ाये गये, दोनों भाईयों ने प्राण संकट में जानकर, धर्म प्रचार के लिए एक की रक्षा आवश्यक समझी, फलतः निकलंक के कहने पर अकलंक एक तालाब में कूदकर कमल पत्रों में छिप गये । निकलंक के साथ एक धोबी भी भागने लगा, उन्हें पकड़कर उनका वध कर दिया गया। इस प्रकार निकलंक के बलिदान ने अकलंक की जान बचाई।
__ अकलंक ने अपने अध्ययन और प्रत्युत्पन्न बुद्धि के अनुसार, बौद्धों से शास्त्रार्थ करना प्रारम्भ किया, उसमें वे सफल भी हुए | राज्यमान होते हुए भी अनेक बौद्ध गुरु अकलंक से पराजित हुए। उनमें से कुछ ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया और कुछ श्रीलंका चले गये।
कलिंग देश के बौद्धानुयाई राजा हिमशीतल की रानी' मदन सुन्दरी, जैनधर्मानुयाई थी वह उत्साह पूर्वक जैनरथ निकालना चाहती थी, परन्तु बौद्ध गुरु उसमें बाधक बन रहे थे, उनका कहना था कि जब तक कोई जैन गुरु मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देता, तब तक जैन रथ नहीं निकाला जा सकता।
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-स्वरूप देशना विमर्श
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