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लेकिन शास्त्रों का ज्ञान 'भेदज्ञानी' संज्ञा नहीं दिला सकता । 'आत्मज्ञानी' संज्ञा शास्त्र नहीं दिला सकते हैं। परमात्मप्रकाश टीका में कहा है
अर्थात् वेदों का पाण्डित्य भिन्न है, शास्त्रों का पाण्डित्य भिन्न है और आत्मा का पाण्डित्य भिन्न है। शास्त्रों / वेदों का पाण्डित्य मुख पात्र तक, मस्तिष्क तक होता है, लेकिन आत्मा का पाण्डित्य ध्रुव अखंड ज्ञायकस्वरूप में होता है। विश्वास रखना, कुछ रख सको, या न रख सको, परन्तु विश्वास (श्रद्धा) रखना । इस तरह देशनाकार आचार्य सम्बोधित करते हुए कहते हैं
अन्यथा वेद पाण्डित्यं, शास्त्र पाण्डित्यमन्यथा । अन्यथा परमं तत्त्वं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा ॥
ज्ञानी! सब कुछ छिन जाए, छिन जाने देना, परन्तु विश्वास रख लेना और विश्व में वास कर लेना । विश्वास रखना कि जब भी कल्याण होगा, विश्वास से होगा, श्रद्धा से होगा ।
इसलिए स्वरूप सम्बोधन में आगे कहा है
अर्थात् अपनी आत्मा को, शरीर आदि अन्य पदार्थों को, समझो किन्तु, ऐसा होने पर भी, इस भेद-भवात्मक, लगाव पक्ष को भी दूर कर दो, केवल निराकुलता रूप स्वानुभव से जानने योग्य, अपने रूप में ठहर जाओ ।
इसलिए इस ग्रन्थ के अन्त में आचार्य अकलंकदेव कहते हैं
स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै स्वस्मात्स्वस्याविनश्वरम् । स्वास्मिन् ध्यात्वा लभेत् स्वोत्थमानन्दामृतं पदम् ॥25॥ अर्थात् निज आत्मा, अपने स्वरूप को, अपने द्वारा स्थित अपने लिए अपनी आत्मा से, अपनी आत्मा का अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ, अविनाशी, आनन्द व अमृतमय पद, अपनी आत्मा में, ध्यान करके प्राप्त करे ।
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स्वं परं विद्धि तत्रापि, व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम् । अनाकुलस्वसंवेद्ये, स्वरूपे तिष्ठ केवले ॥24 ॥
इस प्रकार यही चिन्तन तो पर भाव से भिन्न आत्मस्वभाव के अवलोकन का है । जिसे बार-बार स्वरूप सम्बोधनकार आचार्य श्री अकलंकदेव महाराज एवं स्वरूपदेशनाकार आचार्यश्री विशुद्ध सागरजी बारम्बार ज्ञानी को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं।
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• स्वरूप देशना विमर्श
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