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स्वरूप सम्बोधन में कहा हैसोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं क्रमाद्धेतुफलावहः। यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः॥2॥
अन्वयार्थ- जो, दर्शन-ज्ञान-उपयोग वाला है, क्रम स, कारण और उसके फल यानि कार्य को धारण करने वालो है, ग्रहण करने योग्य है, अग्राह्य है, यानि ग्रहण करने वाला नहीं है, अनादि और अनन्त है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप है, वह प्रसिद्ध है,यह जीवित शरीर में वर्तमान, आत्मा है। ___ मेरी आत्मा का स्वभाव देहमय नहीं है। मेरी आत्मा का स्वभाव भूमिमय नहीं है, स्वर्णमय नहीं है, गोमय नहीं है, महिषमय नहीं है। मेरी आत्मा का स्वभाव उपयोगो लक्षणं' है।
जैन सिद्धान्त को आप कैसे अपने आप में पी सकेगें, इस पर ध्यान दो। जितने युवा बैठे है बड़े ध्यान से सुनना । मैं देह हूँ, तो इस देह को त्रैकालिक रहना चाहिए? मैं भवन हूँ, तो भवन मेरे साथ जाना चाहिए? मुमुक्षु! जिस देह से तुम पाप कर रहे हो, जिस देह का उपयोग तुम पाप में लगा रहे हो,वह देह तो राख हो जायेगी, परन्तु पाप तुम्हें भेंट करके भेज देगी। . मुमुक्षु! ध्यान दो। ये ऐसा ही है जैसे कि जनक जननी ने कन्या को जन्म दिया और जन्म देकर 15-16-17-18 वर्ष तक खूब लाड़-प्यार से खिला के घर में रखा और आज जब कन्या बड़ी हो गयी तो कन्या किसी के हाथ में सौंप रही है माँ । जन्म देकर अब सौंप रही है। जिसने जन्म दिया था, वह साथ नहीं जा रही। जिसके ‘सहयोग से जन्म हुआ था, वह साथ नहीं जा रहा । जिस भवन में जन्म हुआ था, साथ नहीं जा रहा । यह तो सिद्धान्त की चर्चा है।
आगे (पृ० 58-59) कहा है – 'यो ग्राह्योग्राह्य नाद्यन्तः' बहुत गम्भीर सूत्र है, पूरा अध्यात्म भरा हुआ है। अब सब विकल्प छोड़ दो, स्फटिक मणि के सामने जैसा पुष्प आता है वह वैसी दिखना प्रारम्भ कर देती है।
अरस, अरूप: अगंध, अवक्तव्य है, अनिन्द्रिय है। त आँखों से देखना चाहता है। ये आँखों से देखन का विषय नहीं है। ये आत्मा तो आत्मा के अनुभव का विषय है। इसलिए पर नेत्रों का विषय नहीं है। इसलिए आत्मा अग्राह्य है, परन्तु आत्मा स्वानुभूति का विषय है, इसलिए आत्मा ग्राह्य है। ऐसे ग्राह्य व अग्राह्य स्वरूप, भगवत् स्वरूप आत्मा अनादि से हैं और अनन्त काल तक रहेगा।
पूर्वोक्त श्लोक (संख्या 2) की व्याख्या में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने (पृ० 26) पर कहा है- 'इस श्लोक को श्लोक रूप में मत पढ़ो, इस (इह) लोक पढ़ो। स्वरूप देशना विमर्श
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