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________________ जिस खम्भे के पास आप बैठे हो, वह आपके नजदीक है, लेकिन 'निज रूप नहीं है और जो निजरूप नहीं है, वह जिन रूप क्या दिलाएगा? जो निजरूप है,वही जिनरूप है। जो निजरूप देख लेगा, वह जिन रूप को प्राप्त कर लेगा। अतः भैया, निजरूप लखो, जिनरूप प्राप्त कर लो।इसलिए जिन-जिन के साथ आप रहते हो, उनसे दूरियां बनाकर चलो।क्योंकि जितने पर की नजदीकियाँ लेकर चलते हैं, जो ज्यादा नजदीक (मित्र) होते हैं। ज्ञानी ! नहीं शत्रु बनते हैं। ___ करणानुयोग की दृष्टि से पंचपरावर्तन को निहारिए । क्षेत्र परावर्तन में ज्ञानी! तूने ऐसा कौन सा प्रदेश छोड़ा जहाँ तूने भ्रमण न किया हो? क्रम-क्रम से भ्रमण किया है। इसलिए छोड़ो और आज से ये भ्रम निकाल देना कि ये मेरो हैं, मैं इनका हूँ। इनका मैं नहीं हूँ ये मेरे नहीं हैं। आपको मालूम होना चाहिए यदि आप स्वरूप सम्बोधन सुन रहे हो, तो कोई मिथ्यादृष्टि भी यहाँ आकर बैठ जाये तो उसके प्रति भी अशुभ भाव नहीं करना । घोर मिथ्यादृष्टि भी आकर बैठ जाये, उसके प्रति भी अशुभ भाव नहीं करना । ये श्रमण संस्कृति है। ये सिद्ध को सिद्ध नहीं करती, ये प्रसिद्ध करती है।सिद्ध को सिद्ध नहीं कहना पड़ता । असिद्ध को सिद्ध करना पड़ता है कहा भी है "प्रसिद्धोधर्मी' धर्मी प्रसिद्ध होता है। असिद्ध सिद्ध होता है, सिद्ध सिद्ध नहीं होता। ये अज्ञानी लोग हैं जो स्वभाव की जगह द्रव्यदृष्टि को द्रव्य ही मान बैठे हैं। ये अज्ञान का विषय है। लेकिन ज्ञानी जो है वह कहेगा कि असिद्ध प्रसिद्ध होना चाहिए। जो प्रसिद्ध असिद्ध है, उसे ही हम प्रसिद्ध सिद्ध कर पायेगें। स्वरूप सम्बोधन में कहा हैप्रमेयत्वादिभिर्धर्मरचितात्मा चिदात्मकः। ज्ञानदर्शन-तस्तस्माच्चेतना चेतनात्मकः ॥3॥ (पृ० 112) प्रमेयत्व आदि धर्म की अपेक्षा से आत्मा अचेतन है। अस्तित्व गुण आत्मा में है, वस्तुत्व गुण आत्मा में है। आत्मा में कोई चैतन्य नाम का गुण है तो वह है ज्ञानदर्शन । ज्ञान-दर्शन गुण के माध्यम से हमारी आत्मा चैतन्यभूत है। इसलिए एक ही समय में परनिरपेक्ष से आत्मद्रव्य चैतन्य भी है, अचेतन भी है। आत्म अनंतगुणात्मक है, अनंत धर्मात्मक है। जड़ गुणों को जड़ रूप समझो, चैतन्य गुणों को चेतन रूप समझो। परन्तु जो चेतन गुण हैं आत्मा में, वह जड़ गुणों से रहित नहीं होगें और जो जड़गुण हैं आत्मा में, वे चेतन गुणों से रहित नहीं होगें। इसलिए ज्ञान-दर्शन की अपेक्षा से आत्मा ‘स्यात् चेतनाचेतनात्मकः।' ज्ञान-दर्शन की अपेक्षा से चेतन है, अन्य गुणों की (34) -स्वरूप देशना विमर्श 34 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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