SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परभाव से भिन्न आत्मस्वभावः स्वरूपदेशना के परिप्रेक्ष्य में -प्रो० फूलचन्द जैन प्रेमी, दिल्ली अध्यात्मविद्या के मर्मज्ञ और इसी विद्या में अहर्निश तन्मय रहने वाले आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने स्वरूप सम्बोधन ग्रन्थ पर “स्वरूप देशना” नाम से प्रवचन इन्दौर में सन् 2010 में निरन्तर लगभग एक माह तक प्रस्तुत किये थे। उन्हीं का यह संकलन रूप ग्रन्थ है। आपने इसके मूलग्रन्थ कर्ता भट्ट अकलंक देव माना है। अनेक विद्वान इसे आ० अकलंकदेव की कृति मानते हैं किन्तु कुछ वरिष्ठ विद्वान इससे सहमत नहीं है। जो भी है, किन्तु स्वरूप सम्बोधन अपने आप में लघुकाय होते हुए भी आत्मस्वरूप का मर्म अत्यन्त सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करने वाला है। इसी कृति पर आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने इस ग्रन्थ की “स्वरूप देशना मे परभाव से भिन्न आत्मस्वरूप का विवेचन" समसामायिक उद्धरणों एवं संदर्भो के साथ बड़े ही मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है। परभाव से तात्पर्य अपनी आत्मा के अतिरिक्त जो भी पदार्थ हैं वे सब परभाव-परद्रवय हैं। एक मात्र अनन्त चतुष्ट्य युक्त शाश्वत आत्मा ही स्वभाव है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि. एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदसण लक्खणा। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संयोग लक्खण॥ वस्तुत इस सबमें भेद विज्ञान का दिया हुआ रहस्य है। भेद विज्ञान आध्यात्म का उत्कृष्ट तत्त्व है। प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति में कहा है- भेद विज्ञान जाते सति मोक्षार्थी जीवस्वद्रव्ये प्रवृत्तिं परद्रव्ये निवृत्तिं च करोति । अर्थात् भेद विज्ञान हो जाने पर मोक्षार्थी जीव स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य में निवृत्ति करता है। आचार्य अमृतचन्द समयसार कलश (131) में कहते भी हैं भेदविज्ञानतः सिद्धा सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन॥ अर्थात् अभी तक जितने सिद्ध सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं वे सब इसी भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं और अभी तक जितने कर्म बन्धनों में बन्धे हुए हैं, वे सब इसी भेद विज्ञान के अभाव के कारण परद्रव्य की परिभाषा करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द देव ने मोक्षपाहुड में कहा हैस्वरूप देशना विमर्श -310 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy