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________________ ज्ञान से मद का विगलन होता है और विनयरूप विशुद्ध भाव जन्म लेता है, इसे दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी श्रोताओं से कहते हैं- “ज्ञानी! बस ज्ञान की पहचान यहीं देखना। जैसे फल लगने पर वृक्ष की शाखाएं झुक जाती हैं, वैसे ही तत्त्वज्ञानी को ज्ञान होते ही उसकी सारी अवस्थाऐं झुक जाती हैं। देखो, आप यह मत समझना कि पंडित जी (पं० रतनचन्द्र जी शास्त्री, इन्दौर) के सामने बैठे हैं, इसलिए ये बातें कर रहा हूँ। मैं तो पीछे भी बातें करता हूँ और सच्ची प्रशंसा वही है जो पीछे होती है। इतना बड़ा ज्ञानी होने के बाद भी एक प्रतिमाधारी भी हो, क्षुल्लक जी ऊपर बैठे, कितनी उम्र होगी, तब भी ज्ञानी नीचे बैठा है। नहीं, उम्र बड़ी हो सकती है, ज्ञान बड़ा हो सकता है, परन्तु श्रद्धा किस पर जा रही है? संयम पर जा रही है। ऐसे ही थे पं० जगमोहनलाल जी शास्त्री, कटनी वाले। सतना में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया । कुर्सी पर बैठे थे। जब संघ में आये दर्शन को, महाराज जी ने कह दिया कि बैठे रहो, तो वे बोले- “नहीं महाराज! वे आँखें कम हैं, जो हमारे बूढ़े शरीर को देखेंगी। वे आँखें ज्यादा हैं, जो मुनि के साथ कुर्सी पर बैठे देखेंगी । अहो क्या सोच हैं! (स्वरूपदेशना! पृ0 124) मन में प्रश्न उठा कि "स्वरूप देशना” "स्वरूप-सम्बोधन” जैसे न्यायग्रन्थ में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने अभिषेक रूप व्यवहार धर्म की चर्चा क्यों उठायी? और वह भी एक जगह नहीं, अपितु कई जगह? परन्तु फिर विचार आया कि अभिषेक का सम्बन्ध भी विशुद्ध परिणामों की उत्पत्ति से है, इसलिए सप्रसंग इसकी चर्चा श्रावकों को दिशा-बोध देने के लिए प्रस्तुत की है। सम्यग्ज्ञान के लिए अन्वेषनात्मक खोज करना आवश्यक है। कहीं आगम ग्रन्थों में कोई मिलावट तो नहीं की गयी है? किसी भी ग्रन्थ को आँख भींचकर आगम ग्रन्थ मान लेना उचित नहीं है। क्या मिलावटी और नकली ग्रन्थों को पढ़ने से सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो सकता है और क्या वह विशुद्ध भावों की उत्पत्ति में कारण बन सकता है? अतः अध्ययन-मनन करने की आवश्यकता है, यदि समीचीन सम्यग्ज्ञान को स्थाई रखना है तो। ***** 30 स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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