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हो । अकलंक-महोदधि से निकाले मोतियों से आचार्य माणिक्यानन्दी स्वमी कह रहे हैं कि जिससे हित की प्राप्ति हो, अहित का परिहार हो, वही प्रमाण है। वह प्रमाणिकता ज्ञान में ही हो सकती है, अन्य में नहीं हो सकती। हाथ में दीपक, ज्ञानी फिर भी गड्डे में गिर जाये तो इसमें दीपक का क्या दोष? दीपक इसलिए लेना पड़ता है कि कहीं साँप पर पैर न पड़ जाय, मल पर पैर न पड़ जाये, कुएँ में न गिर जाऊँ।......... ज्ञानी! दीप इसलिए लेकर चलना पड़ता है कि कहीं विषयकषायों के साँप पर पैर न पड़ जाये, विषयभोगों के गड्डे में न गिर जाऊँ, वासना का बिच्छ्र डंक न मार दे।...वह ज्ञान 'ज्ञान' नहीं, जिससे अहित का परिहो।"
(स्वरूप-सम्बोधन/स्वरूपदेशना | पृ० 120-121) आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने इस दृष्टान्त व्याख्यान द्वारा परीक्षामुख के उक्त सूत्र में जो सम्यज्ञान रूप प्रमाण का फल बतलाया गया है, उसे भलीभांति हृदयंगम बना दिया हैं।
इस व्याख्यान में आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार की निम्नलिखित गाथा का प्रभाव भी समविष्ट है
णादूण आसवाणं असुचित्तं विवरीयभावं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो,णियत्तिं कुादिजीवो।72||
अर्थात् जब जीव यह जान लेता है कि क्रोधादि आस्रव अपवित्र हैं, आत्मस्वभाव से विपरीत हैं और दुःख के कारण हैं, तब वह उनसे निवृत्त हो जाता
___आचार्य भगवन श्री कुन्दकुन्द देव के इन वचनों से भी सिद्ध होता है कि अशुद्धभावों की निवृत्ति और विशुद्धभावों की उत्पत्ति में सम्यग्ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी इसकी पुष्टि करते हुए उक्त गाथा की आत्मख्याति टीका में लिखते हैं- “इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवाय-आत्मा स्त्रवयोर्भेदं जानाति तदैव आस्रवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽ-निवर्तमानस्य पारमार्थिक तद्भेदज्ञानासिद्धेः।'
अर्थाता इन तीन विपरीतताओं के दर्शन से ज्यों ही जीव आत्मा और आस्रवों के भेद को जानता है, त्यों ही उनसे निवृत्त हो जाता है। यदि निवृत्त नहीं होता है तो सिद्ध होता है कि उसे परमार्थतः भेदज्ञान ही नहीं हुआ है। तात्पर्य यह कि सम्यग्ज्ञान आत्मा में विशुद्धभावों की उत्पत्ति का प्राथमिक हेतु है।
स्वरूप देशना विमर्श
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