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स्वरूपदेशना के परिप्रेक्ष्य में विशुद्ध भावों की उत्पत्ति में सम्यग्ज्ञान की भूमिका
प्रो० (डा०) रतनचन्द्र जैन, भोपाल (म०प्र०) मेरे आलेख का विषय है' स्वरूपदेशना के परिप्रेक्ष्य में विशुद्धभावों की उत्पत्ति में सम्यग्ज्ञान की भूमिका ।' आर्चाय श्री अकलंक देव रचित 'स्वरूपसंबोधन' की 26 कारिकाओं पर आचार्य श्री विशुद्धसागर जी द्वारा की गई देशना के संग्रह कानाम ‘स्वरूप-देशना है।
स्वरूप सम्बोधन की चौथी कारिका में यह अकलंक देव ने बतलाया है कि ज्ञान आत्मा का गुण है। आत्मा उससे न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न, अपितु कथंचित, भिन्न-भिन्न है।
. इस पर देशना करते हुए आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बतलाने के लिए मूलाचार की निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है- .
जेण तच्चं बिबुज्झेज्ज, जेण चित्तं निरूज्झदि। . . जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे||267॥
अर्थात् जिससे तत्त्व का बोध हो, जिससे चित्त का निरोध हो तथा जिससे आत्मा विशुद्ध हो, उसे जिनशासन में ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहा गया है।
इसकी व्याख्या के लिए आचार्य विशुद्धसागर जी हाथ की पाँच अंगुलियों में से बीच की तीन अँगुलियों का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं- तीन अँगुलियों में बीच की अंगुली सबसे ऊँची है, वह सम्यग्ज्ञान है और आजू-बाजू की अँगुलियाँ सम्यग्दर्शन एवं सम्यकचरित्र हैं। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन को भी ज्योतिर्मय करता है और सम्यक्चरित्र को भी।
इससे यह वैज्ञानिक तथ्य स्पष्ट होता है कि समीचीन तत्त्वज्ञान से सम्यग्दर्शन रूप विशुद्धता प्रकट होती है, भले ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर वह समीचीन तत्त्वज्ञान सम्यग्ज्ञान संज्ञा पाता है। और सम्यग्ज्ञान होने पर ही अर्थात् हेय और उपादेय का विवेक होने पर ही जीव हेय का त्याग और उपादेय को ग्रहण करता है जिससे सम्यक्चरित्र विशुद्धता का विकास होता है।
इसकी पुष्टि के लिए आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने परीक्षामुख का यह सूत्र उद्धृत किया है- “हिताहित-प्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्। और इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं- "अकलंक स्वामी से आप ज्ञान की चर्चा सुन रहे (28
-स्वरूप देशना विमर्श
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