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धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादन करने का एक साधन या उपाय है । अनेकान्त और स्याद्वाद शब्द पर्यायवाची नहीं है । अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पयार्यवायी हो सकते हैं। अनेकान्त यह शब्द अनेक और अन्त इन दो पदों के मेल से बना है। एक वस्तु में अनेक धर्मों के रहने का नाम अनेकान्त नहीं है किन्तु प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है। ऐसा प्रतिपादन करना ही अनेकान्त का प्रयोजन है अर्थात् सत्, असत् का अविनाभावी है और एक अनेक का अविनाभावी है ।
प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं और प्रत्येक धर्म का कथन अपने विरोधी धर्म की अपेक्षा से सात प्रकार से किया जाता है। प्रत्येक धर्म का सात प्रकार से कथन करने की शैली का नाम ही सप्तभंगी है कहा भी है- 'प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेनं विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी' अर्थात् सात प्रकार के प्रश्न के वश से वस्तु में अविरोध पूर्वक विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है। उक्त सिद्धान्त के अनुसार आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज स्वरूप देशना में कहते हैं कि एक ही समय मे वह द्रव्य कथचिंत् विधिरूप है, कथचिंत् निषेधरूप है। कैसे ? स्वधर्म की अपेक्षा वस्तु विधिरूप है, परधर्म की अपेक्षा से वस्तु निषेध रूप है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल स्वभाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है और परद्रव्य परकाल, परक्षेत्र, परभाव की अपेक्षा से मैं नास्तिरूप हूँ । ये पुद्गलद्रव्य है स्वचतुष्टय की अपेक्षा से अस्तिरूप। ये जीव है क्या ? नास्ति रूप है। आत्मा मूर्तिक भी है, अमूर्तिक भी है । बोधमूर्ति, ज्ञानमूर्ति की अपेक्षा से आत्मा मूर्तिक है स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण का अभाव होने से आत्मा अमूर्तिक है। इसलिए स्याद् मूर्तिक स्याद् अमूर्तिक । संसारी आत्मा बन्ध की अपेक्षा मूर्तिक है, निर्बन्ध स्वभाव की अपेक्षा से अमूर्तिक है । इसलिए हमारी आत्मा अनेकान्तमयी है ।
उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि न्यायविद्या के समर्थक युगप्रभावक आचार्य भट्टाकंलकदेव की इस कृति पर आचार्य विशुद्ध सागरजी महाराज ने विधि-निषेध अर्थात् स्याद्वाद शैली में अनेकान्तमयी आत्मा का स्वरूप श्रावकों को अनेक उदाहरण देकर समझाया है। आचार्य श्री न्याय जैसा दुरुह, शुष्क विषय को इस प्रकार प्रतिपादित करते हैं जैसे मोक्षमार्ग की कहानियाँ सुना रहे हों। इस युग में न्याय-दर्शन की विधि निषेध शैली के माध्यम से वस्तु विवेचन करने वाले आप जैसे विरले ही संत है । आपका चिन्तन मौलिक है पाठकों को नयी शैली में नया प्रमेय प्राप्त होता है। इसी प्रकार यह चिन्तन युग युगान्तर तक प्राप्त होता रहे यही मेरी भावना है ।
स्वरूप देशना विमर्श
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