________________
आत्मा के स्वरूप को आचार्य अकंलक देव जिस अध्यात्म शैली में कह रहे हैं, वह अन्यत्र देखने में दुर्लभ है। देशनाकार ने न्याय के ग्रन्थों को गहरायी से अध्ययन किया है। यही कारण है कि आपने भी अकंलक द्वारा अपनायी गयी शैली को ही प्रयोग किया है। जैसे आत्मा सर्वथा अवक्तव्य है या वक्तव्य है, इसको समझाने के लिए आपने काफी विस्तार से सिद्ध किया है कि अनुभव जो होगा वह अवाच्य होगा और जो कथन होगा वह वाच्य होगा। अर्थात् स्वरूपादि की अपेक्षा से आत्मा अवक्तव्य नहीं हैं परन्तु अविवक्षित धर्मों की अपेक्षा आत्मा अवक्तव्य है। . - स्वरूपदेशना की आठवीं कारिका में आत्मा विधिरूप है या निषेध रूप है? आत्मा मूर्तिक है या अमूर्तिक है? इत्यादि प्रश्नों का समाधान इस कारिका में प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ को पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष से मुक्त रखा गया है, परन्तु अकंलक़ जैसे तार्किक शिरोमणि आचार्य ने पूर्वपक्ष का उल्लेख किये बिना भी अन्य वादियों का निराकरण किया ही है। वे कहते हैं कि
सा स्याद् विधिनिषेधात्मा, स्वधर्मपरधर्मयोः।
स मूर्ति बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्॥ वह आत्मा स्वधर्म और परधर्म में विधि और निषेध रूप होता है। वह ज्ञानमूर्ति होने से मूर्तिरूप है और विपरीत रूप वाला होने से अमूर्तिक है। इसको कन्नडटीकाकार महासेन पण्डितदेव तथा संस्कृतदीकाकार केशववर्णी ने अकंलक के अभिप्राय को काफी विस्तार से स्पष्ट किया है।
उक्त टीकाओं के बावजूद भी ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय अध्यात्मपरक होने के साथ न्यायभाषा से परिपूर्ण है। अतः आचार्य विशुद्ध सागरजी महाराज ने सरल सुबोध शैली में श्रावकों को देशना के माध्यम से उदाहरणों के द्वारा समझाया है। देशनाकार कहते हैं कि वस्तु स्वरूप के प्रति अज्ञ दृष्टि जीव की है कि असत्य को असत्यार्थ ही मानता है जबकि असत्य भी सत्यार्थ है। असत्य को असत्य तो कहतना परन्तु असत्य को असत् मत कहना । यदि असत्य असत् हे तो असत्य किस बात का? औ सत्य असत् है, तो सत्य क्या? आपको असत्य की भी सत्ता स्वीकार करनी होगी। इसी प्रकार भूतार्थ की भी सत्ता है, अभूतार्थ की भी सत्ता है। सत्ता की दृष्टि से दोनों सत् हैं । वस्तुतः उक्त कारिका स्याद्वाद से परिपूर्ण है।
स्याद्वाद यह संयुक्त पद है जो स्यात् और वाद इन दो पदों के मेल से बनता है। 'वाद' का अर्थ है कथन या प्रतिपादन और 'स्याद्' शब्द कथचिंत के अर्थ में प्रयुक्त होती है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और स्याद्वाद उस अनन्त
(26
-स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org