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स्वरूप सम्बोधन के द्वितीय श्लोक में आचार्य अकंलक स्वामी आत्मा के स्वरूप में चार विशेषणों का निरूपण करते हैं । इस ग्रन्थ का यह पद्य वास्तव में गागर में सागर की उक्ति की चरितार्थ करता है । देशनाकार' आत्मा ग्राह्य - अग्राह्य है' इसको अनेकान्त शैली में प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि यह पद्य पूरा अध्यात्म से भरा हुआ है। स्फटिक मणि के सामने जैसा पुष्प आये वैसी दिखना प्रारम्भ कर देती है लेकिन मणि पुष्परूप नहीं होती। ऐसी ही आत्मा है । आज तक मेरे आत्मद्रव्य ने परद्रव्य को स्वीकार नहीं किया। मैं समझ रहा हूँ कि कर्म, नोकर्म, भावकर्म से बद्ध है आत्मा । इतना होने के उपरान्त भी जैसे स्फटिक के सामने पुष्प आया अवश्य है लेकिन स्फटिक ने पुष्प को किचिंत भी स्वीकार नहीं किया। उस स्फटिक रूप नहीं हुआ । ये पारदर्शिता का प्रभाव है कि उसमें झलकता, लेकिन स्पृष्ट नहीं हुआ ।
शुद्ध आत्मा ने कभी भी परद्रव्य को स्पृष्ट नहीं किया, इसलिए अग्राह्य है ये आत्मा । स्पर्श, रस, गन्ध आदि द्रव्यों से खींचा नहीं जा सकता इसलिए ये अग्राह्य है परन्तु निज स्वरूप में लीन होता योगी, इसलिए ग्राह्य है । ये आत्मा तो आत्मा के अनुभव का विषय है इसलिए, प नेत्रों का विषय नहीं है इसलिए आत्मा अग्राह्य है । परन्तु आत्मा स्वानुभूति का विषय है, इसलिए आत्मा ग्राह्य भी है।
देशनाकार आत्मा का ग्राह्य - अग्राह्य दोनों धर्मों को किस सरल भाषा शैली से समझा रहे और अकंलक के हृदय की बात खोलकर रख दी । यह न्याय की विधि - निषेध शैली है ।
इसी कृति में आचार्य अकंलक स्वामी आत्मा को स्यात् चेतना चेतनात्मक कह रहें । देशनाकार ने अनेक उदाहरण देकर अपनी चिरपरिचित शैली में देशना दी है कि आत्मा में कोई चैतन्य नाम का गुण है तो वह है ज्ञान - दर्शन | इस गुण के माध्यम से हमारी आत्मा चैतन्यभूत है। इसलिए एक ही समय में पर निरपेक्ष से आत्मद्रव्य चैतन भी है, अचेतन भी है आत्मा अनन्त गुणात्मक है अनन्त धर्मात्मक है। अतः आत्मा को चेतनाचेतन - स्वभावी कहते हैं ।
देशनाकार ने स्वरूप देशना में वैशषिक मत का उल्लेख करते हुए कहा ये. दार्शनिक ज्ञानन-दर्शन गुण को आत्मा से भिन्न मानते हैं परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि संज्ञा-लक्षण प्रयोजन की दृष्टि से द्रव्य, गुण पर्याय में भेद है परन्तु अधिकरण की दृष्टि से एक है। ज्ञान से आत्मा भिन्न है व अभिन्न है । कथचिंत भिन्न हैं, कथचिंत अभिन्न है। जो ज्ञान गुण की पर्याय है वह भूत, भविष्य, वर्तमान त्रैकालिक अवस्था को जानती है ।
स्वरूप देशना विमर्श
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