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________________ "आचार्य भट्ट अकंलक स्वामी भी एक महान आचार्य हुए हैं। नैयायिक दार्शनिक और सिद्धान्तों से परिपूर्ण अध्यात्म के सुजेता ऐसे महायोगी अकलंक स्वामी समन्तभद्र की कृति 'आप्तमीमांसा' पर अष्टशती लिखने का श्रेय जिनको प्राप्त हो और जैन दर्शन में अकलंक न्याय की अलग से आभा फैली हो, ये आचार्य अकलंक स्वामी, जिनके लिए आचार्य माणिक्यनंदि स्वामी कह रहे हैं- "मैं जो भी कहूँगा, अकलंक महोदधि से निकाल कर कहूँगा । सम्पूर्ण जैन ` वाङ्मय में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को कहने वाला यदि कोई योगी है तो आचार्य भट्ट अकलंक स्वामी हैं और अकलंक स्वामी ने कहा, उसे अपरवर्ती आचार्यों ने बड़े सम्मान के साथ स्वीकार किया ।" " यहाँ आचार्य ने स्पष्ट किया है कि इंद्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा देकर अकलंक देव ने तात्कालिक विपरीत, अत्यंत भयावह स्थिति में जैन दर्शन को स्थापित करने में विजय प्राप्त की । तत्त्वों के निर्णय करने हेतु उनके ग्रंथों में तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक टीका न्याय प्रेमियों का कण्ठहार बनी हुयी है। विशुद्ध सागर जी महाराज हमें निम्न शब्दों में सावधान कर रहे हैं, पाठकगण ध्यान देवें "ज्ञानियों! बड़े सहज भाव से समझना । कभी-कभी मैं आपको कह देता हूँ कि चार्वाक दृष्टि में मत जिओ। बड़ा सैद्धान्तिक पक्ष है। स्मृति, प्रत्यमिज्ञान, तर्क अनुमान और आगम, इन सबको गौण करके जो मात्र यह कहता है कि जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है, वह जैन नहीं ।".... तू प्रत्यक्ष को सब कुछ मान रहा है और ये प्रत्यक्ष प्रमाण का ही फल है। घोर मिथ्यात्व जो फैल रहा है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण का ही फल है। हम लोग प्रत्यक्ष प्रमाण को नहीं मानते, ऐसा नहीं हैं हम प्रत्यक्ष प्रमाण को भी मानते हैं, उसके साथ-साथ स्मृति, तर्क, अनुमान, आगम को भी मानते हैं। आपको मैं सीधी-सीधी धर्म की बातें भी बता सकता हूँ परन्तु सीधी इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि यदि ये विषय (तत्त्व निर्णय) यदि आपके सामने नहीं रखा जायेगा तो आज आत्मा के अस्तित्व को समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं । आत्मा की त्रैकालिक सत्ता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक) प्रमाण मात्र को ही यदि प्रमाण मानते हो तो उसका परिणाम आज देखो समाज में क्या हो रहा है।" पृष्ठ 36, स्वरूपदेशना । 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only - स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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