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4. चार्वाक- भूतचैतन्यवाद, प्रत्यक्षक प्रमाणवाद, नास्तिक्य । 5. मीमांसक-अभाव प्रमाणवाद, परोक्षज्ञानवाद, वेद-अपौरूषेयत्ववाद 6. वेदान्ती- ब्रह्माद्वैतवाद (ब्रह्मवाद) 7. श्वेताम्बर-केवलिकवलाहारवाद, स्त्रीमुक्तिवाद ।
उपर्युक्त आदि प्रमाणामासों ने जो तत्त्व निर्णय माना है उनका मधुर शब्द विन्यास के लिए आचार्य श्री ने जैन प्रमाण विद्या के आधार से सम्यक निरसन किया है। यहाँ हम जैन दर्शन मान्य प्रमाण का एकादि लक्षण प्रकट करना आवश्यक समझते हैं। “स्वापूर्वाथव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् आत्मार्थ ग्राह व्यवसायात्मक
ज्ञान प्रमाण है। 3. “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। 4. "प्रमाणीविसंवादि ज्ञानमनधिगतार्थ लक्षणत्वात्। ' अनधिगतार्थ
अविसंवादि ज्ञान प्रमाण है। “स्वपरावभासकं, यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्” ।' स्वपरावभासी ज्ञान प्रमाण है।
जैन दर्शन मान्य प्रमाण लक्षणों को यहाँ इसलिए प्रकृत मानना अभीष्ट होगा कि स्वरूप देशना में तत्त्व निर्णय में न्याय की उपयोगिता को मानते हुए इन्हीं के अपेक्षित विभिन्न प्रकारों से श्रोताओं को अवगत कराने का प्रयत्न किया है।
आचार्य श्री ने प्रस्तुत देशना में जैन धर्मावलम्बियों में प्रवेश प्राप्त मिथ्या तत्त्वनिर्माण का भी दिग्दर्शन कराया है तथा उनका त्याग करने की प्रेरणा न्याय के परिवेश में की है,दृष्टव्य है देशना के वाक्य, जिनमें पूर्वाचार्यों के मन्तव्य शामिल हैं।
स्वरूप देशना विमर्श
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